Thursday, 17 November 2016
Friday, 28 October 2016
Wednesday, 26 October 2016
छालों के पदचिह्न
ऐसे कब तक और
सहेंगे, जु़ल्म तुम्हारे प्राण
हमारे।। टेक।।
कटु शब्दों के
पार कहीं पर, धैर्य की सीमा
बड़ी है,
प्रतिस्पर्धा की
नोंक-झोंक में, देखनी निर्णय की
घड़ी है।
होगा न्याय इसी
धरती पर, सब कुछ सामने आयेगा,
सफेदी पुते हुए
चेहरों पर, दर्पण प्रश्न उठायेगा।
फिर अवसाद की उस
बेला में, अकुलायेंगे नयन तुम्हारे,
ऐसे कब
तक-----------------------।।
बादल सहित बरसात
होयेगी, मरूस्थल में भाप होयेगी,
गर्म रेत के
पदचिह्नों पर, छालों से मुलाकात
होयेगी।
जब चुभेंगे
काँटें बबूल के, अम्बर में धूल
नज़र आयेगी,
रेत से बनी हुई
दीवार,
इक ठोकर से गिर जायेगी।
बिम्बित होकर तब
हृदय में, चिल्लायेंगे शब्द हमारे,
ऐसे कब
तक-----------------------।।
Monday, 24 October 2016
Saturday, 22 October 2016
प्रेम
प्रेम-प्रेम सब कोई कहे, प्रेम न चीन्है कोय।
जा मारग साहब मिलै, प्रेम कहावै सोय।।
प्रेम शब्द कहना बहुत सरल है किन्तु उसके विषय में कुछ जानना उतना ही कठिन। प्रेम क्या है ? इसके संबंध में समझना लोगों के लिए सबसे बड़ी दुविधा है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में प्राचीन समय से खोज हो रही है। लाखों पुस्तकें, ग्रन्थ और कवितायें इस सन्दर्भ में लिखी जा चुकी हैं फिर भी इसकी व्याख्या अधूरी है। प्रेम नाम है उस नूर का जो न जाने कब से इस संसार के दिल में बहता आ रहा है। इस बूंद का ठहराव वह समुद्र है जहां से यह सदियों पहले बिछुड़ गई थी। इस लिए ’प्रेम विशाल समुद्र’ है।
प्रेेम अर्थात् अनुराग, प्रीति, स्नेह, प्रणय, मोहब्बत और इश्क एक अदभुत रत्न है। यह ईश्वर की निज दात है जो हृदय को निर्मल, उज्ज्वल, शीतल और पवित्र बनाती है। पतंगा दीपक पर आशिक है, उसमें प्राकृतिक प्रीति है। दीपक को देखकर ही वह अपना आप भूल जाता है। इसी को प्रीति या प्रेम कहते हैं। सच्चे प्रेम में मनुष्य अपनी सुद्ध-बुद्ध भूल जाता है। प्रेम कोई सहज कार्य नहीं है, इसमें इन्द्रियां जर्जर हो जाती हैं, हड्डी-हड्डी की धूल उड़ाई जाती है। हाफ़िज़ ने कहा है कि-
’’इश्क आसां नमूद अव्वल, वले उफ़्ताद मुश्किलहा।’’
जैसे संसार में जब किसी को प्रेम होता है तो सगे-संबंधी, कुटुम्बी और परिवार वाले सब शत्रु बन जाते हैं। इसी प्रकार परमात्मा से प्रेम होने पर भी प्राणी के भीतरी कुटुम्बी अर्थात मन, माया, इन्द्रियां और पाँंच भूत, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से विद्रोह करना पड़ता है। यह युद्ध ईश्वर के द्वारा मनुष्य से करवाया जाता है। जिस प्रकार कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा था कि-’’युद्ध मैं करूँगा, मगर करवाना तुम्हारे हाथ से है।’’
’प्रेम राग’ है। एक ऐसा राग जिसका संगीत दिन-रात लगा रहे। संसारी प्रेम में लोग अपना खाना खराब कर देते हैं, यदि परमार्थ में अपना घर नहीं उजाड़ा तो वह कैसा प्रेम ? प्रेम की एक चिंगारी से तो भूसे का ढेर भस्म हो जाता है। संसारी प्रेम का प्रभाव अन्त: करण हृदय के स्थान पर होता है परन्तु परमार्थी प्रेम का स्थान शिव नेत्र तीसरी आंँख पर। जहां प्रेम है वहां अंधकार नहीं रहता, तात्पर्य कि प्रेम ही ’उजियाला’ है। जब सूर्योदय होता है तो अंधकार दूर हो जाता है और उजियाला फैल जाता है। ठीक ऐसे ही जब प्रेम उत्पन्न हो गया तो भीतर के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं और शील, क्षमा एवं संतोष का प्रकाश फैल जाता है।
प्रेेम ’प्रकाश’ है। वह प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। कहीं बूंद रूप, कहीं लहर रूप और कहीं सिंध स्वरूप। प्रेम इस प्रकार अन्तर में छिपा है जैसे- दूध में घी, लकड़ी में उष्मा और पुष्प में सुगन्ध। जैसे मंदिर दीप बिना, शरीर नयन बिना, रात्रि चन्द्रमा बिना, सब्जी नमक बिना और औरत पुरुष बिना अधूरी है वैसे ही प्राणी प्रेम बिना शून्य समझना चाहिए। जब अलौकिक प्रेम जागता है तब उपासना यानि भक्ति शुरू होती है। प्रेम सार अर्थात् ’तत्व वस्तु’ है। प्रेम ‘बीज’ है अतिरिक्त छिलका। प्रेम ही मूल अर्थात् जड़ है। जब आत्मा निर्मल होती है तब प्रेम प्रकट होता है। संसारी अनुराग को मोह कहते हैं जो मन की उपज है और परमार्थी अनुराग को प्रेम कहते हैं जो आत्मा की पैदायश है।
प्रेम ’पंख’ है- उड़ने के लिए। जैसे पक्षी पंखों के सहारे उड़ता है, वैसे ही आत्मा प्रेम की सहायता से अपने मार्ग की ओर उड़ान भरती है। प्रेम ’साधन’ है साध्य से मिलने का। प्रेम ऐसा हो जैसे माता का पुत्र से, चकोर का चन्द्रमा से, मृग का नाद से, पतंगे का दीपक से, मछली का नीर से, कामी का कामिन से, पपीहा का स्वाँंति से और सर्प का बीन से। जिसने प्रेम का प्याला पिया है, वह आठों जाम शराबी की तरह उसी के रस में मगन रहता है। प्रेमी को हर स्थान पर प्रीतम ही द्रष्टव्य होता है। यह प्रेम का रस भी तीन प्रकार का है- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। शारीरिक प्रेम में कामुक प्रवृति प्रभावकारी होती है और मानसिक में मनोवेग के अनुरूप प्रवृति का बहाव अधिक रहता है जबकि आत्मिक प्रेम में तो आत्मा का मेल होता है। यही ’आत्मा का सुमेल’ वास्तव में प्रेम की संज्ञा ग्रहण करता है।
प्रेम का संबंध सुन्दरता से है अर्थात जो ’सुन्दरम्’ है वही प्रेम है। किसी को किसी के अच्छे गुणों, विचारों, आवाज, अंदाज, रूप और स्पर्श से प्रेम हो सकता है। इसका संबंध चेतना से होता है।
प्रेम दो प्रकार का होता है- अन्तर्मुखी और बाहरमुखी। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखकर आन्तरिक आनंद में लगाना ही अन्तर्मुखी प्रेम कहलाता है। जबकि बाह्य लीला देखकर मस्त होना बाहरमुखी प्रेम है। प्रेम स्वयं के अर्थ से विहीन होता है उसमें तो परम अर्थ निहित होता है। जीव कल्यााण की मंगलकामना छिपी होती है। जिस प्रेम में हवस या लालसा आ जाती है, वह सांसारिक प्रेम का रूप धारण कर लेता और माानवीय जीवन इसी प्रेम का फल है, जबकि पारलौकिक प्रेम संकुचित अवधारणा से मुक्त होता है।
प्रेम में स्वार्थ, कपट, लपेट और अविश्वास इत्यादि का कुछ काम नहीं। प्रेम तो त्याग है, वह न धन सम्पत्ति चाहता है, न सिद्धि-शक्ति। उसे केवल अपने प्रियतम का ही दर्शन चाहिए। यही प्रेमी की इच्छा, तृष्णा एवं कामना होती है। जो सुख-दुख, किसी भी दशा में डाँवाडोल न हो, वही सच्चा प्रेम है। प्रियतम को ’समझना’ ही प्रेम कहलाता है जो उसके स्वभाव से परिचित है उसकी प्रतीति में नेकहुं कमी नहीं आ सकती। जहां प्रीतम से संयोग है वहां प्रतीति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता अर्थात जिसकी प्रतीति कराई जाती जब वही प्राप्त है तो प्रतीति किसकी ? जब तक संयोग नहीं, तब तक ही प्रतीति कराई जाती है।
प्रेम सबसे कर्म करवाता है। प्रेम न हो तो जीवन की गति ठहर जाएगी। प्रेम से ही संसार चलता है। मां-बाप को प्रेम है अपने बच्चे से, राष्ट्रभक्त को राष्ट्र से, कलाकार को कला से, लोभी को धन से, कर्ता को कार्य से और महात्मा को परमात्मा से। किन्तु इन्सानियत को प्रेम होना चाहिये-समस्त वनस्पति से, जीव-जंतुओं से और सम्पूर्ण दुनियादारी से । इस लिए ’प्रेम कर्म’ है।
प्रीतम की याद’ का नाम ही प्रेम है। जब याद आवेगी तब प्रेम आवेगा। जहां याद है वहां प्रीतम स्वंय उपस्थित है। याद भी तभी संभव है जब दया की बरसात होती है। क्योंकि याद को उल्टा करने से ही दया बनती है। जितने भी कार्य किये जाते हैं यदि उनमें प्रीतम की याद नहीं है तो वह प्रेम नहीं है बल्कि खाली है। ’एकाग्रता का विशेषोन्मुख’ होना ही प्रेम है। उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते और खाते-पीते उसी का स्मरण रहे, वही प्रेम है। प्रति क्षण प्रीतम की याद ही भक्ति है, ध्यान है, सुमिरन है।
पहले विरह होनी चाहिए, चाह होनी चाहिए, पीछे प्रेम। विरह में तपिश है और प्रेम में शीतलता। जब प्रेम आ गया तब लगन लग गई। विरह में जलने वालों की आँखों से तो निरन्तर बरसात होती रहती है। किन्तु बाहर से सूखकर भी भीतर की हरीतिमा बढ़ती जाती हैै। हृदय के प्रेम की बात तो अश्रुधारा से ही निकल पड़ती है। जिससे किसी को परिचित करवाने की आवश्यकता भी शेष नहीं रहती।
फूल इस बात का पाबन्द नहीं कि लोग समझें उसमें खुशबू है। ज्योति नहीं चाहती कि औरों को ज्ञात हो कि मैं प्रकाशित हूंँ। मेवे का वृक्ष नहीं चाहता कि सबको मालूम होवे कि मैं फलदार हूंँ। ऐसे ही जिसमें प्रेम का जौहर है, वह नहीं चाहता कि संसार में इस बात का उजियाला हो कि मुझमें जौहर है।
सर्वोत्म प्रेम तो वही है कि जो ईश्वर से होता है और जो स्थायी है। यही भक्ति है। मनुष्य की आत्मा का ईश्वरीय ’आत्मा से योग’ जो मनुष्य को पूर्ण बना देता है वही ’परिपूर्ण जीवन’ प्रेम है।
जा मारग साहब मिलै, प्रेम कहावै सोय।।
प्रेम शब्द कहना बहुत सरल है किन्तु उसके विषय में कुछ जानना उतना ही कठिन। प्रेम क्या है ? इसके संबंध में समझना लोगों के लिए सबसे बड़ी दुविधा है। यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में प्राचीन समय से खोज हो रही है। लाखों पुस्तकें, ग्रन्थ और कवितायें इस सन्दर्भ में लिखी जा चुकी हैं फिर भी इसकी व्याख्या अधूरी है। प्रेम नाम है उस नूर का जो न जाने कब से इस संसार के दिल में बहता आ रहा है। इस बूंद का ठहराव वह समुद्र है जहां से यह सदियों पहले बिछुड़ गई थी। इस लिए ’प्रेम विशाल समुद्र’ है।
प्रेेम अर्थात् अनुराग, प्रीति, स्नेह, प्रणय, मोहब्बत और इश्क एक अदभुत रत्न है। यह ईश्वर की निज दात है जो हृदय को निर्मल, उज्ज्वल, शीतल और पवित्र बनाती है। पतंगा दीपक पर आशिक है, उसमें प्राकृतिक प्रीति है। दीपक को देखकर ही वह अपना आप भूल जाता है। इसी को प्रीति या प्रेम कहते हैं। सच्चे प्रेम में मनुष्य अपनी सुद्ध-बुद्ध भूल जाता है। प्रेम कोई सहज कार्य नहीं है, इसमें इन्द्रियां जर्जर हो जाती हैं, हड्डी-हड्डी की धूल उड़ाई जाती है। हाफ़िज़ ने कहा है कि-
’’इश्क आसां नमूद अव्वल, वले उफ़्ताद मुश्किलहा।’’
जैसे संसार में जब किसी को प्रेम होता है तो सगे-संबंधी, कुटुम्बी और परिवार वाले सब शत्रु बन जाते हैं। इसी प्रकार परमात्मा से प्रेम होने पर भी प्राणी के भीतरी कुटुम्बी अर्थात मन, माया, इन्द्रियां और पाँंच भूत, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से विद्रोह करना पड़ता है। यह युद्ध ईश्वर के द्वारा मनुष्य से करवाया जाता है। जिस प्रकार कृष्ण जी ने अर्जुन से कहा था कि-’’युद्ध मैं करूँगा, मगर करवाना तुम्हारे हाथ से है।’’
’प्रेम राग’ है। एक ऐसा राग जिसका संगीत दिन-रात लगा रहे। संसारी प्रेम में लोग अपना खाना खराब कर देते हैं, यदि परमार्थ में अपना घर नहीं उजाड़ा तो वह कैसा प्रेम ? प्रेम की एक चिंगारी से तो भूसे का ढेर भस्म हो जाता है। संसारी प्रेम का प्रभाव अन्त: करण हृदय के स्थान पर होता है परन्तु परमार्थी प्रेम का स्थान शिव नेत्र तीसरी आंँख पर। जहां प्रेम है वहां अंधकार नहीं रहता, तात्पर्य कि प्रेम ही ’उजियाला’ है। जब सूर्योदय होता है तो अंधकार दूर हो जाता है और उजियाला फैल जाता है। ठीक ऐसे ही जब प्रेम उत्पन्न हो गया तो भीतर के सभी विकार नष्ट हो जाते हैं और शील, क्षमा एवं संतोष का प्रकाश फैल जाता है।
प्रेेम ’प्रकाश’ है। वह प्रत्येक स्थान पर विद्यमान है। कहीं बूंद रूप, कहीं लहर रूप और कहीं सिंध स्वरूप। प्रेम इस प्रकार अन्तर में छिपा है जैसे- दूध में घी, लकड़ी में उष्मा और पुष्प में सुगन्ध। जैसे मंदिर दीप बिना, शरीर नयन बिना, रात्रि चन्द्रमा बिना, सब्जी नमक बिना और औरत पुरुष बिना अधूरी है वैसे ही प्राणी प्रेम बिना शून्य समझना चाहिए। जब अलौकिक प्रेम जागता है तब उपासना यानि भक्ति शुरू होती है। प्रेम सार अर्थात् ’तत्व वस्तु’ है। प्रेम ‘बीज’ है अतिरिक्त छिलका। प्रेम ही मूल अर्थात् जड़ है। जब आत्मा निर्मल होती है तब प्रेम प्रकट होता है। संसारी अनुराग को मोह कहते हैं जो मन की उपज है और परमार्थी अनुराग को प्रेम कहते हैं जो आत्मा की पैदायश है।
प्रेम ’पंख’ है- उड़ने के लिए। जैसे पक्षी पंखों के सहारे उड़ता है, वैसे ही आत्मा प्रेम की सहायता से अपने मार्ग की ओर उड़ान भरती है। प्रेम ’साधन’ है साध्य से मिलने का। प्रेम ऐसा हो जैसे माता का पुत्र से, चकोर का चन्द्रमा से, मृग का नाद से, पतंगे का दीपक से, मछली का नीर से, कामी का कामिन से, पपीहा का स्वाँंति से और सर्प का बीन से। जिसने प्रेम का प्याला पिया है, वह आठों जाम शराबी की तरह उसी के रस में मगन रहता है। प्रेमी को हर स्थान पर प्रीतम ही द्रष्टव्य होता है। यह प्रेम का रस भी तीन प्रकार का है- शारीरिक, मानसिक और आत्मिक। शारीरिक प्रेम में कामुक प्रवृति प्रभावकारी होती है और मानसिक में मनोवेग के अनुरूप प्रवृति का बहाव अधिक रहता है जबकि आत्मिक प्रेम में तो आत्मा का मेल होता है। यही ’आत्मा का सुमेल’ वास्तव में प्रेम की संज्ञा ग्रहण करता है।
प्रेम का संबंध सुन्दरता से है अर्थात जो ’सुन्दरम्’ है वही प्रेम है। किसी को किसी के अच्छे गुणों, विचारों, आवाज, अंदाज, रूप और स्पर्श से प्रेम हो सकता है। इसका संबंध चेतना से होता है।
प्रेम दो प्रकार का होता है- अन्तर्मुखी और बाहरमुखी। अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखकर आन्तरिक आनंद में लगाना ही अन्तर्मुखी प्रेम कहलाता है। जबकि बाह्य लीला देखकर मस्त होना बाहरमुखी प्रेम है। प्रेम स्वयं के अर्थ से विहीन होता है उसमें तो परम अर्थ निहित होता है। जीव कल्यााण की मंगलकामना छिपी होती है। जिस प्रेम में हवस या लालसा आ जाती है, वह सांसारिक प्रेम का रूप धारण कर लेता और माानवीय जीवन इसी प्रेम का फल है, जबकि पारलौकिक प्रेम संकुचित अवधारणा से मुक्त होता है।
प्रेम में स्वार्थ, कपट, लपेट और अविश्वास इत्यादि का कुछ काम नहीं। प्रेम तो त्याग है, वह न धन सम्पत्ति चाहता है, न सिद्धि-शक्ति। उसे केवल अपने प्रियतम का ही दर्शन चाहिए। यही प्रेमी की इच्छा, तृष्णा एवं कामना होती है। जो सुख-दुख, किसी भी दशा में डाँवाडोल न हो, वही सच्चा प्रेम है। प्रियतम को ’समझना’ ही प्रेम कहलाता है जो उसके स्वभाव से परिचित है उसकी प्रतीति में नेकहुं कमी नहीं आ सकती। जहां प्रीतम से संयोग है वहां प्रतीति का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता अर्थात जिसकी प्रतीति कराई जाती जब वही प्राप्त है तो प्रतीति किसकी ? जब तक संयोग नहीं, तब तक ही प्रतीति कराई जाती है।
प्रेम सबसे कर्म करवाता है। प्रेम न हो तो जीवन की गति ठहर जाएगी। प्रेम से ही संसार चलता है। मां-बाप को प्रेम है अपने बच्चे से, राष्ट्रभक्त को राष्ट्र से, कलाकार को कला से, लोभी को धन से, कर्ता को कार्य से और महात्मा को परमात्मा से। किन्तु इन्सानियत को प्रेम होना चाहिये-समस्त वनस्पति से, जीव-जंतुओं से और सम्पूर्ण दुनियादारी से । इस लिए ’प्रेम कर्म’ है।
प्रीतम की याद’ का नाम ही प्रेम है। जब याद आवेगी तब प्रेम आवेगा। जहां याद है वहां प्रीतम स्वंय उपस्थित है। याद भी तभी संभव है जब दया की बरसात होती है। क्योंकि याद को उल्टा करने से ही दया बनती है। जितने भी कार्य किये जाते हैं यदि उनमें प्रीतम की याद नहीं है तो वह प्रेम नहीं है बल्कि खाली है। ’एकाग्रता का विशेषोन्मुख’ होना ही प्रेम है। उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते और खाते-पीते उसी का स्मरण रहे, वही प्रेम है। प्रति क्षण प्रीतम की याद ही भक्ति है, ध्यान है, सुमिरन है।
पहले विरह होनी चाहिए, चाह होनी चाहिए, पीछे प्रेम। विरह में तपिश है और प्रेम में शीतलता। जब प्रेम आ गया तब लगन लग गई। विरह में जलने वालों की आँखों से तो निरन्तर बरसात होती रहती है। किन्तु बाहर से सूखकर भी भीतर की हरीतिमा बढ़ती जाती हैै। हृदय के प्रेम की बात तो अश्रुधारा से ही निकल पड़ती है। जिससे किसी को परिचित करवाने की आवश्यकता भी शेष नहीं रहती।
फूल इस बात का पाबन्द नहीं कि लोग समझें उसमें खुशबू है। ज्योति नहीं चाहती कि औरों को ज्ञात हो कि मैं प्रकाशित हूंँ। मेवे का वृक्ष नहीं चाहता कि सबको मालूम होवे कि मैं फलदार हूंँ। ऐसे ही जिसमें प्रेम का जौहर है, वह नहीं चाहता कि संसार में इस बात का उजियाला हो कि मुझमें जौहर है।
सर्वोत्म प्रेम तो वही है कि जो ईश्वर से होता है और जो स्थायी है। यही भक्ति है। मनुष्य की आत्मा का ईश्वरीय ’आत्मा से योग’ जो मनुष्य को पूर्ण बना देता है वही ’परिपूर्ण जीवन’ प्रेम है।
Saturday, 8 October 2016
न मैं कोई कवि हूँ
न मैं कोई कवि हूँ,
न मैं कोई रवि हूँ
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न लिखे दोहे कबीर के
न लिखे दोहे रहीम के,
न तुलसी की चौपाईयाँ
न बच्चन की रुबाईयाँ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न महादेवी के गीत हैं
न मीरा का संगीत है,
न दर्शन है प्रसाद का
न राष्ट्रप्रेम चौहान का ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न पद हैं रविदास के
न सवैये हैं रसखान के,
न ही प्रेम है जायसी का
न ही वात्सल्य सूर का ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न रीति है न भक्ति
न निर्गुण सगुण शक्ति,
न श्रृंगारिकता देव की
न राष्ट्रीयता भूषण की,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न मैं कोई रवि हूँ
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न लिखे दोहे कबीर के
न लिखे दोहे रहीम के,
न तुलसी की चौपाईयाँ
न बच्चन की रुबाईयाँ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न महादेवी के गीत हैं
न मीरा का संगीत है,
न दर्शन है प्रसाद का
न राष्ट्रप्रेम चौहान का ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न पद हैं रविदास के
न सवैये हैं रसखान के,
न ही प्रेम है जायसी का
न ही वात्सल्य सूर का ,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
न रीति है न भक्ति
न निर्गुण सगुण शक्ति,
न श्रृंगारिकता देव की
न राष्ट्रीयता भूषण की,
लेकिन फिर भी लिखे जाता हूँ।
Tuesday, 4 October 2016
भारत देश महान
सबके सपनों का संसार जिसे मैं भूल रहा हूँ।।
संस्कारों ने भारत की पक्की नींव बनाई है ,
गुरु नानक व राम कृष्ण ने शिला बनाई है।
वेद, कुरान, गीता ने राह सही दिखाई है,
तभी तो जाकर चिड़िया भी सोने की कहाई है।
आज क्यों भटकी भारत की वो ऊंची संतान
जिसे मैं भूल रहा हूँ...
अंग्रेजों से लड़के हमने आज़ादी पाई है,
भारत माँ ने बेटों की अर्थी उठाई है।
वीरों ने सरहद्दों पर अपनी जान गवाई है,
बापू गांधी ने भी गोली सीने पर खाई है।
आज के नेता फिर क्यों मिलकर लेते उसकी जान
जिसे मैं भूल रहा हूँ....
बहु- भाषी होकर भी हमने उदहारण बनाये है।
कश्मीर से लेकर कन्या तक था एक ही भारत राज,
विंध्या हिमाचल यमुना से था महका सब परिवार।
आज गुटों में बांटा जाये लेकर अलगाव
जिसे मैं भूल रहा हूँ.....
एक चिंगारी बीच सुलगती किसने भड़काई है?
इतिहास गवाह है पन्ने पलटो भारत इक चट्टान
आ जाये गर भीतर दुश्मन दे देगा बलिदान।
अभी वक़्त है जग जाओ न फिर से हों गुलाम
जिसे मैं भूल रहा हूँ.....
जिसे मैं भूल रहा हूँ.....
Monday, 3 October 2016
Thursday, 29 September 2016
पोस्टकार्ड
आदमी
एक अन्तरदेशीय
लिफ़ाफ़ा है।
एक अन्तरदेशीय
लिफ़ाफ़ा है।
जो बचपन] जवानी और बुढ़ापे
के तीन मोड़ खाकर
पोस्ट हो जाता है।
Subscribe to:
Posts (Atom)