बच्चन और हालावाद
लावाद (हाला+वाद) से मिलकर बना है. हाला का अर्थ है मदिरा और वाद का अर्थ होता
है सिद्धान्त या मत. तो हालावाद का अर्थ हुआ ’मदिरावाद’. हाला, बाला, मधुशाला,
प्याला आदि का गुनानुवाद है. हालावाद जीवन की कठिनाईयों से मधुपान कर मुक्ति की
क्षण्भंगुरता में विश्वास है और उसे आनंद और मस्ती से व्यतीत करने के भावना है.
हालावाद का उत्स सूफ़ियोंअ का आंदोलन है जिसमें प्रेम-मादकता, शराब, प्याले आदि
की चर्चा है. सूफ़ियो का कहना था कि खुदा रोजा, नमाज़ आदि बाह्य आडम्बरों से प्राप्त
नहीं हो सकता अपितु तादात्मय प्रेम-गहनता से यह सम्भव है. सूफ़ियों ने मिलन और आनंद
की तुलना शराब के नशे और खुमारी से की है. सूफ़ी कवि तन्मयता से विभोर होकर कहता
है:-
“मज़ा शराब का कैसे कहूँ तुझसे ज़ाहिद
हाय कम्बख्त तूने पी ही नहीं”.
सुरा के साथ सुन्दरी का योग आनंद का श्रीवर्धन करता है. हालावाद की कविताओं
में सूफ़ी दार्शनिकता समाहित है. आत्मा अर्थात आशिक (प्रेमी) , परमात्मा अर्थात
माशूक (प्रेमिका) के विरह में तड़पता है. विश्व के कण-कण में उसी का हुस्न देखता है
और अनेक व्यवधानों-अवरोधों को लांघता हुआ पानी की बूँद के समान उसी चेतना के सागर
में लवलीन हो जाना चाहता है.
प्रेम, सौन्दर्य और यौवन के प्रति आकर्षण हाला के माध्यम से ईश्वरीय प्रेम की
कल्पना की गई है. हालावाद का विवेचन करते हुये आलोचकों का ध्यान केवल छायावादी
काव्यधारा में ही केन्द्रित होकर रह जाता है. इसका परिणाम यह है कि वे कवि जो पूरी
तरह से छायावाद के अन्तर्गत नहीं आ पाते, उपेक्षित हो जाते हैं. अब यहाँ पर कहा जा
सकता है कि प्रणय और यौवन का चित्रण तो छायावादी काव्य में बड़ी तल्लीनता के साथ
किया गया है, इसलिये इन कवियों को स्वतन्त्र रूप से प्रेम और मस्ती की काव्यधारा
के अन्तर्गत रखने का क्या आधार है? छायावादी कवियों में प्रणय का महत्त्व सीमित
है. छायावादी कवियों ने स्थूल प्रणय-बन्धन से ऊपर उठने का प्रयास करते हुये उसे एक
व्यापक जीवन चेतना के अंग के रूप में ग्रहण किय. पन्त ने प्रणय को साध्य न मानकर
साधन के रूप में स्वीकार किया है.
दूसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यद्यपि छायावादी चेतना भी प्रधान रूप से
व्यक्तिवादी चेतना है और प्रेम और मस्ती के इन कवियों की साधना व्यक्तिनिष्ठ रही
है, तथापि दोनों के व्यक्तिवाद में मूलभूत अन्तर है. छायावादी व्यक्ति चेतना शरीर
से ऊपर उठकर मन और फिर आत्मा का स्पर्श करने लगती है, जबकि इन कवियों में
व्यक्तिनिष्ठ चेतना प्रधान रूप से शरीर और मन के धरातल पर ही व्यक्त होती है.
इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया है.
छायावादी काव्य जहाँ प्रणय को जीवन की यथार्थ-विषम व्यापकता में संजोने का
प्रयास करता है वहाँ प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो विमुख होकर प्रणय में
तल्लीन दिखाई देता है या फिर जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच
लाता है. ’नवीन’ जी ने जैसे कहा है:-
“हो जाने दे गर्क नशे में, मत पड़ने दे फ़र्क नशे में
ज्ञान ध्यान पूजा पोथी के, फट जाने दे वर्क नशे में.”
हालावाद की विशेषता तो मात्र प्रणय में तल्लीन हो जाने की कामना में है. यही
इसका साध्य प्रतीत होता है.
इसीलिय बच्चन जी कहते हैं कि:-
“वह मादकता ही क्या जिसमें बाकी रह जाये जग का भय”.
इस प्रकार कहा ज सकता है कि प्रणय का रूप छायावादी प्रेम-भावना और अर्वाचीन नई
कविता की यौन-भावना के बीच की कड़ी है.
अब यहाँ देखना यह है कि वह ऐसा कौन सा ’जग का भय’ है जो बच्चन जी ने कहा या वह
कौन सी ऐसी अनैतिक रूढ़ियाँ हैं जिसे ये अस्वीकार कर देना चाहते हैं. दरअसल यह
कविता भी उसी युग की उपज है जिसने छायावाद को जन्म दिया. छायावादी कवियों ने भी
नैतिकता के बोझ से अक्रान्त प्रणय को मुक्त करने का प्रयास किया किन्तु वे उससे
पूरी तरह मुक्त नहीं हो सके और उनकी प्रणय-भावना आध्यात्मिकता से सम्पृक्त हो गई.
प्रणय के इन कवियों ने (हालावाद) नैतिकता के कठोर बन्धनों के प्रति विद्रोह किया.
लौकिक स्तर पर प्रणय की तीव्रता की स्वीकृति का एक परिणाम यह हुआ कि प्रणय के
साथ-साथ कविता में मादकता, शराब, साक़ी, मैखाने आदि का भरपूर वर्णन मिलने लगा.
हालावाद के प्रवर्तक हरिवंश राय बच्चन हैं. मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश इन
त्रय रचनाओं में हालावाद व्यंजित है. सन्
1935-36 तक की अवधि
में इन त्रय रचनाऒं का प्रणयन हुआ है. इस काव्य धारा में बच्चन के अतिरिक्त पद्माकांत
मालवीय, जगदम्बा प्रसाद मिश्र हितैषी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, हृदयनारायण पाण्डेय
हृदयेश, भगवतीचरण वर्मा, नरेन्द्र शर्मा, अंचल आदि का योगदान महनीय है.
अब प्रश्न यह उठ सकता है कि ये कवि इतने उदासीन क्यों
थे? इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि जैसे-जैसे स्वाधीनता का आंदोलन बल पकड़ता जा
रहा था वैसे-वैसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का दमन चक्र भी बढ़ता जा रहा था. ऐसे में जो
कवि खुलकर दमन चक्र और आतंक का सामना नहीं कर सके, वे आत्मकेन्द्रित होकर प्रणय के
गीत गाने लगे. प्रेम और मस्ती का यह काव्य निस्सन्देह अपनी सीधी सच्ची अनुभूति और
कला के कारण जनता में विशेष ख्याति पा सका. प्रधान रूप से तो इन्होंने समाज की
विषमताओं से पराजित और संघर्ष से विरत एकाकी व्यक्ति की अनुभूतियों को ही व्यक्त
किया है:-
“यहाँ सफलता या असफ़लता, ये तो सिर्फ़ बहाने हैं,
केवल इतना सत्य है कि निज को हम ही स्वयं अनजाने
हैं.”
हरिवंशराय बच्चन का जन्म सन् 1907 ई. में
इलाहाबाद में हुआ. आपके पिता श्री प्रतापनारायण साहित्यिक रूचि सम्पन्न व्यक्ति
थे. माता धार्मिक संस्कार प्राप्त थी. इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए.
एवं एम.ए. परीक्षाएँ उतीर्ण कीं. कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डाक्टर की उपाधि
प्राप्त की. आपने कुछ समय सम्पादन का कार्य भी किया. सन् 1966 में आपको राज्यसभा के सदस्य होने का सम्मान भी प्राप्त हुआ. युवावस्था
में ये पढ़ाई छोड़कर राष्ट्रीय आंदोलन में कूद पड़े. पहली पत्नी के वियोग ने इन्हें निराशा व दुख से भर दिया. बच्चन की
प्रमुख कृति ’तेरा हार’ सन 1932 में प्रकाशित हुई. मधुशाला, मधुबाला,
मधुकलश ये तीन कृतियाँ इनकी हालावाद के रचनाएँ कहलायीं. इन कविताओं में प्यार और
टीस विद्यमान है. ये कविताएँ दुख को भुलाने में सहयोगी हैं. इनके अलावा निशा
निमन्त्रण, एकांत संगीत, सतरंगिणी तथा मिलनयामिनी और प्रणय पत्रिका इनकी प्रसिद्ध
रचनाएँ हैं.
हरिवंशराय बच्चन हालावाद के प्रवर्तक हैं. उनके काव्य
में निराशा, पीड़ा तथा वेदना के साथ ही मिलन बेला के मधुरिम क्षणों की भी झांकी
मिलती है. बच्चन का आरंभिक जीवन भले ही कष्टों एवं अभावों में बीता किन्तु इनकी
कविता जीवन से पूरी तरह विमुख नहीं है. मधुशाला में डूबा हुआ कवि सामाजिक विषमता
से भी अनजान नहीं है. उन्होंने जीवन की विषमताओं को एक सामान्य अनुभूति के स्तर पर
सुलझाने का प्रयास अवश्य किया है.
बच्चन क प्रेम सन्निपात था जिसमें व्यक्ति अचेतन में
प्रलाप करता है. बच्चन की हाला ऐसे भोगवाद का प्रतीक है जिसका मूलाधार
है-आध्यात्मिक विद्रोह. मधुशाला की भूमिका सम्बोधन में बच्चन ने हालावाद के बारे
में विचार देते कहा- “आह जीवन की मदिरा जो हमें विवश होकर पीनी पड़ी है, कितनी कड़वी
है? कितनी? यह मदिरा उस मदिरा के नशे को उतार देगी, जीवन की दुख दामिनी चेतना को
विस्मृति के गर्त में गिरायगी तथा प्रबल दैव, दुर्दमकाल, निर्ममकर्म और निर्दय
नियति के क्रूर, कठोर, कुटिल आघातों से रक्षा करेगी. क्षीण-क्षुद्र, क्षण भंगुर,
दुर्बल मानव के पास जग जीवन की समस्त आधि व्याधियों की यही एक महोषधि है........ले
इसे पान कर और इस मद के उन्माद में अपने को, अपने दुख को, अपने दुखद समय को और समय
के कठिन चक्र को भूल जा.”
बच्चन के काव्य में व्यैक्तिकता का समावेश अधिक्य
रहा. कवि बच्चन का आह्वान थ:-
“ध्यान किए जा मन में सुमधुर-सुखकर सुन्दर साकी का
मुख से तु अविरत कहता जा, मधु मदिरा-मादक हाला”
सौन्दर्य की प्रतिमा नारी का अशरीरी सौन्दर्य इस युग
के काव्य का वर्णय विषय रहा.बच्चन का हालावाद इन्हीं प्रणय मूलक भावनाओं का छलकता
जाम था जिसकी प्रबल वासना सामाजिकता को सह न सकी और फूट पड़ी:-
“कह रहा जग वासनामय, हो रहा उदगार मेरा
मैं छिपाना जानता तो, जग मुझे साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा.”
कवि का मानना है कि रूढ़ियों के विरुद्ध लड़ना उचित है
परन्तु लड़ाई का ढ़ंग एक और रूढ़ि को जन्म दे यह शुभकर नहीं:-
“विश्व तो चलता रहा है, थाम राह बनी बनाई
किन्तु इन पर किस तरह मैं- कवि चरण अपने बढ़ाऊ”
बच्चन के काव्य में राजनीतिक परिस्थितियों और हलचलों
का प्रभाव एक नई साहसिकता के रूप में दिखाई देता है:-
“मैं निज मन के उद्गार लिये फिरता हूँ,
मैं निज उर के उपहार लिये फिरता हूँ”
सामाजिक सुधार की चेतना ने इस युवा कवि की आँखों में
तत्कालीन समाज के क्षण्ग्रस्तता क घिनौना दृश्य उपस्थित किया. बाधाएँ आती हैं पर
कवि उनकी चिन्ता नहीं करता. युवा कवि की आत्मविश्वास से दीप्त वाणी कहीं भी अकुंठ
नहीं होती. बच्चन ने कई बार संसार को पागल कहा और संसार ने बच्चन को पागल कहा.
“पागल सब संसार कह उठा
स्वर्ग कह उठा ज्ञानी,
भाग्य-पटल पर विधि ने लिख दी
कवि की जटिल कहानी”
यद्यपि वे स्वयं अपने स्वर की विलक्षणता से चौंक गये
थे कि वे जैसा अनुभव कर रहे हैं, वैसी ही अनुभूति उनके युग के युवा मन को अक्रान्त
किये हुये है. इस युग की स्मृति करते उन्होंने लिखा:-
“मुझे अपने जीवन के आरम्भ में इस बात का सबूत मिल गया
था कि न तो मैं ढाई चावल की खिचड़ी पका रहा हूँ और न ही ढाई ईंट की मस्जिद उठा रहा
हूँ, न तो मैं अकेले कंठ की पुकार हूँ, क्योंकि मेर स्वर निकल्ते ही बहुत से कंठों
में प्रतिध्वनि होने लगती थी या बहुत से प्राणों की अनुगूँज बनाता था.”
कवि मस्तीपन का संदेश लिये कहता है:-
“मैं दुनिया का हूँ एक नया दीवाना
मैं दीवानों क वंश लिये फिरता हूँ”
हालावाद में उन्माद क दर्शन समाहित है. हालावाद बच्चन का स्वप्न है, संघर्ष की छलना
है, वासनाओं का विस्फोट है, अरमानों का तांडव है, अभावों का चीत्कार-फूतकार है.
कवि बच्चन को निराशा, नियति और अतृप्ति के सिवा मिला क्या? वह एकाकी हो गया:-
“कल्पना, सुरा औ साकी है- पीने वाला एकाकी है.”
आचार्यों ने ईश्वर का आविष्कार किया और बच्चन ने हाला
का, यथा-
लाख पटक तू हाथ पाँव पर, इससे सब कुछ होने का
लिखा भाग्य में तेरे जो बस-वही मिलेगी मधुशाला.”
काव्य में प्रकृति के परिशीलन के मध्य से कवि निजी
भावनाओं की अभिव्यक्ति भी करता है;_
“अहे मैंने कलियों के साथ,
जब मेरा चंचल बचपन था,
महा निर्दयी मेरा मन था,
अत्याचार अनेक किये थे,
कलियों को दुख दीर्घ दिये थे,
तोड़ उन्हें बागों से लाता,
छेद-छेद कर हार बनाता,
क्रूर कार्य यह कैसे करता,
सोच इसे हूँ आहें भरता,
कलियो तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ.”
कवि प्राय: दो प्रकार के उद्देश्यों से प्रतीकों का
प्रयोग किया करता है. कुछ कवि अपनी संवेदना की जटिलता की अभिव्यक्ति के लिये
प्रतीकों का सहारा लेते हैं और कुछ कवि अपनी अनुभूति को अधिक तीव्र और प्रभावशाली
बनाने के लिये प्रतीकों का प्रयोग करते हैं. यहाँ कवि मधु प्रतीकों के रहस्य और
अर्थ का उदघाटन करता है. सबसे पहले कवि अपने मृदु भावों को हाला कहता है, पर दूसरे
ही क्षण वह अपने प्रियतम का हाला पिलाने की बात करता है तो तुरन्त बाद वह खुद को
प्रियतम रूपी हाला का प्याला भी बना देता है;-
“मृदु भावों के अंगूरों की,
आज बना लाया हाला,
प्रियतम अपने ही हाथों से
आज पिलाऊँगा प्याला,
प्रियतम तू मेरी हाला है
मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू
बनता है पीनेवाला.”
मधुशाला में बच्चन ने भावुकता का रूपान्तरीकरण करने
की कोशिश की है. प्याला नामक रचना में मानव देह के विनाशी स्वभाव का अख्यान कवि ने
बड़े ही मर्मस्पर्शी ढंग से किया है. इस कविता में सृष्टि-प्रक्रिया के सम्बन्ध में
आकस्मिकता का दृष्टिकोण अपनाया गया है. प्याले का आत्मकथ्य कवि इसी निर्यातवादी
दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है;-
“मिट्टी का तन, मस्ती का मन
क्षण भर जीवन-मेरा परिचय.
कल कल रात्रि के अंधकार
में थी मेरी सत्ता विलीन
इस मूर्तिमान जग में महान
था मैं विप्लुप्त कल रू-हीन”
कल मादकता थी मेरी नींद
थी जड़ता से ले रही होड़
किन सरस करों का पारस आज
करता जागृत जीवन नवीन?”
’इस पार और उस पार’ नामक कविता भी हृदयग्राही है, इस
कविता में बच्चन वर्तमान की पीठिका में भविष्य के प्रति संदेह प्रकट करते हैं और
संदिग्ध भविष्य की तुलना में आसन्न वर्तमान को अधिक महत्वपूर्ण और सार्गर्भित
समझते हैं;-
“इस पार प्रिय मधु है तुम हो
उस पार न जाने क्या होगा?”
विषम परिस्थितियों को झुठलाते हुये जीवन बिता देना कवि
अपनी इतिश्री समझता है. आत्म-प्रवंचना को आत्म समाधान समझ लेता है;-
“मैं मदिरालय के अंदर हूँ
मेरे हाथों में प्याला”
बच्चन के काव्य में रागात्मकता तथा संगीत लय समाहित
है;-
“सुन कल कल छल छल मधुर घट से
गिरती प्यालों में हाला”
अन्त में कहा जा सकता है कि बच्चन के काव्य मेम
सामाजिकता रूढ़वाद तथा धार्मिक बाह्य आडम्बरों का विरोध है. इनके काव्य में
नशा-प्याला-हाला-मधुकलश आदि शब्द प्रतीक हैं. साथ ही बच्चन के काव्य में नैतिकता
का बन्धन नहीं है. उन्होंने स्वच्छ्न्द छन्दों का प्रयोग किया है. ईश्वर की
प्राप्ति के लिये प्रेम गहनता में तादात्मयता स्थापित करके ईश्वर की प्राप्ति की
जा सकती है.
1. मधुशाला
2. मधुबाला
3. मधुकलश
4. हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास- डा.
नगेन्द्र
5. हिन्दी कविता के प्रमुख वाद-
डा.आदित्य प्रचण्डिया
6. हिन्दी साहित्य का इतिहास-डा.गणपति
चन्द गुप्त
7. हिन्दी साहित्य और सम्वेदना का
विकास-डा. रामस्वरूप चतुर्वेदी
Thank you so much
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteBhut sundr
ReplyDeleteअद्भूत वर्णन ,ज्ञानप्रद ओर भाषा पर पकड़ लिए ये लेख बेमिसाल है
ReplyDeleteThank you
ReplyDeleteThank you
ReplyDeleteStudents ke liye bahut upyogi he thanks kaha
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर रचना।
ReplyDeleteThanks 😊
ReplyDeleteVery very nice 👍🌹
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