सर आनन्द स्वरूप जी कृत दीन व दुनिया नाटक में
लोकतत्त्वों का अनुशीलन
सर आनन्द स्वरूप साहबजी महाराज ऐसे प्रथम सन्त हुए जिन्होंने स्वराज्य शरणाश्रम का सपूत संसार चक्र और दीन व दुनिया नामक कुल चार नाटक लिखे जो लोकतत्त्वों की दृष्टि से श्रेष्ठ कहे जा सकते हैं। ये नाटक मौलिक हैं जिन पर न तो पाश्चात्य नाटकों का प्रभाव है और न ही विविध भाषाओं के नाटकों का। इनकी ओर हिन्दी नाटक साहित्य जगत का ध्यान ही नहीं गया। इनके नाटकों में लोकजीवन के सभी पक्षों का चित्रण करते हुए जीव के लोक का ही नहीं वरन् परलोक का कल्याण करना भी सहबजी महाराज का उद्देश्य है। यदि इस युग के अन्य नाटककारों ने सर आनन्दस्वरूप साहबजी महाराज के नाटकों से प्रेरणा लेकर नाट्य रचना की होती तो प्रसाद युगीन नाट्य जगत को एक नई दिशा मिल गई होती और ये युग लोकतत्त्वों का ह्रास युग न कहलाकर लोकतत्त्वों का समृद्ध युग कहा जा सकता था।
सर आनन्दस्वरूप साहबजी महाराज कृत ‘दीन व दुनिया नाटक एक आध्यात्मिक नाटक है।जिसके कथानक में ‘दुनिया की दिलफ़रेबियों और दीन के आशिकों की परेशानियों का निहायत दिलचस्प व मुअस्सर पैराये में बयान करके दीन की मंजिल पर पहुँचने का आसान तरीका बतलाया गया है। दीन व दुनिया' नाटक में नियति के समान फ़रिश्ते का प्रकट होना लोकरूढ़ि को दर्शाता है। फ़रिश्ता बार—बार आकर चन्द्रहास का मार्ग—दर्शन करता है। फ़रिश्ते का चन्द्रहास के समक्ष प्रकट होना लोक विश्वास को जीवन्तता ‘प्रदान करता है। उद्धरण—
“फरिश्ता— चन्द्रहास! चन्द्रहास! देखते हो मुझको?
चन्द्रहास — जी हाँ देखता हूँ आप कौन हैं? मुझे समाधि से क्यों उठाया?
“फरिश्ता— चन्द्रहास! चन्द्रहास! देखते हो मुझको?
चन्द्रहास — जी हाँ देखता हूँ आप कौन हैं? मुझे समाधि से क्यों उठाया?
फ़रिश्ता— उस कादिर मुतलक की आफ़रीनिश का एक ज़र्रा हूँ। फ़रिश्ता कहलाता हूँ, तुम्हारे लिये खुशखबरी लाया हूँ। खुशखबरी सुनाने के लिये तुम्हें समाधि से उठाया है।”
लोक विश्वास का एक अन्य उदाहरण‘इस प्रकार है—
“यह तीन दाने जंगली चावलों के हैं। जंगल के रहने वाले कहते हैं कि इनके खा लेने से तीन बरस तक भूख न लगेगी और यह बूटी है— इसके अर्क के तीन घूँट पी लेने से तीन बरस तक प्यास न लगेगी। इसकी मदद से तीन बरस बेखटके समाधि लगा सकूँगा।”
दीन व दुनिया' नाटक लोक स्वभाव को विशेष सौन्दर्य प्रदान करता है। लोक के अनुसार पति—पत्नि का स्वभाव ‘इस प्रकार दिखाई पड़ता है—
लोक विश्वास का एक अन्य उदाहरण‘इस प्रकार है—
“यह तीन दाने जंगली चावलों के हैं। जंगल के रहने वाले कहते हैं कि इनके खा लेने से तीन बरस तक भूख न लगेगी और यह बूटी है— इसके अर्क के तीन घूँट पी लेने से तीन बरस तक प्यास न लगेगी। इसकी मदद से तीन बरस बेखटके समाधि लगा सकूँगा।”
दीन व दुनिया' नाटक लोक स्वभाव को विशेष सौन्दर्य प्रदान करता है। लोक के अनुसार पति—पत्नि का स्वभाव ‘इस प्रकार दिखाई पड़ता है—
“मर्द—यह कम्बख़्त मेरा ज़रा कहना नहीं मानती। खाना पकाती है सानी से बदतर। कभी नमक इतना ज्यादा कि खाना ज़हर सा कड़बा.‘कभी इतना कम कि पानी सा फीका। कोई तफ़रीह के लिये काम करूँ तो बस अंगारा बन जाती है और जब देखो यही फ़रमायश। यह जेवर ला दो, वह कपड़ा ला दो। नाक में दम कर रखा है कम्बख़्त ने। मुझे पहले मालूम होता तो कभी इससे शादी न करता।”
भिखारी—भिखारिन की भीख माँगने की प्रवृत्ति का वर्णन किया गया है। साहूकार की लोभी प्रवृत्ति को दिखाया गया है, जिसे सामने रखे खाने से अधिक लगाव अपने लेखे में है। चन्द्रहास के साहूकार से खाना न खाने और लेखे में मग्न होने का कारण पूछने पर साहूकार अपने स्वभाव का प्रमाण स्वयं देते हुए कहता है कि “साहूकार— महाराज! साहूकारों की खुराक सूद है। सूद न हो तो खाना किस काम का?
चन्द्रहास— तुम्हारी सलाना आमदनी कितनी है?
साहूकार— आमदनी का क्या है? बहुत भी है और कुछ भी नहीं संसार में एक से एक बढ़के सेठ भरे हैं। उनके सामने मैं क्या हूँ? कुछ भी नहीं हूँ।”
‘दीन व दुनिया' नाटक लिखने के पीछे नाटककार का मूल उद्देश्य लोक मांगल्य था। लेखक ने संसारी पदार्थों एवं माया के जाल में फँसे हुए जीव के कल्याण हेतु इस नाटक की रचना की ताकि जीव अपने मुख्य लक्ष्य से विमुख न होकर लोक को ही नहीं, बल्कि परलोक को भी सरल कर सके। क्योंकि मनुष्य जगत की भोग—वासनाओं में इस तरह लिप्त हो चुका है कि उसे इस संसार में अपने आने का कारण ही नहीं पता। इसी संदर्भ की पुष्टि करता चन्द्रहास का निम्नलिखित संवाद देखिए—
“चन्द्रहास—आखिर दुनिया में आने का कोई मतलब भी होना चाहिए। मुझे यह पसन्द नहीं कि निरे जानवरों की सी जिन्दगी बसर करूँ—जैसे तैसे पेट भर लूँ, अंडे बच्चे पैदा कर दूँ और एक दिन मिट्टी में मिल जाऊँ! पर क्या करूँ? किससे पूछूँ? किधर जाऊँ? अब वापस न जाऊँगा। इसी पेड़ के नीचे समाधि लगाऊँगा और फैसला करके ही उठूँगा।“
वस्तुतः यह नाटक साधन से साध्य की ओर ले जाता है, जो आत्मा को अपने अस्तित्व के प्रति जागरुक करता है।
प्रस्तुत नाटक का रंगमंच प्राकृतिक एवं अकृत्रिम है। रंगमंचीय साज—सज्जा बाह्य चमत्कारों एवं दिखावे से निर्लेप है। नाटक का श्रीगणेश जंगल से होता है, जहाँ एक पेड़ के नीचे चन्द्रहास नाम का पात्र टहल रहा होता है। चन्द्रहास बदस्तूर समाधि में बैठा है। इर्द—गिर्द घास बढ़ गई है। दीमक ने उसके बदन पर मिट्टी चढ़ा दी है। चिड़ियों ने उसकी गर्दन के पीछे घोंसला बना लिया है। सुबह चार बजे का वक्त है। ”इसके अतिरिक्त दुनिया का मकान, साहूकार की दुकान, बाज़ार का दृश्य और अन्ततः दीन का पहाड़ी की सीढ़ियाँ इत्यादि दृश्य एक सफल रंगमंच को प्रस्तुत करते हैं। दीन व दुनिया' नाटक में रंगरूढ़ियों का विशेष ध्यान रखा गया है। नाटक का प्रारम्भ ईश्वरीय वंदना से चल कर लोक कल्याण के गान पर समाप्त होता है। नियति या भाग्य के समान ही इस नाटक में भी फ़रिश्ता स्थान—स्थान पर चन्द्रहास का पथ—प्रदर्शन करता है। जिस प्रकार आकाश भाषित संवाद और प्रकाश रंगरूढ़ि की शोभा को चार—चाँद लगाते हैं, उसी भाँति फरिश्ते का आगमन एवं प्रस्थान भी इसी ओर इंगित करता है। ‘नाटक में नूरानी रोशनी का प्रकट होना, पहाड़ी के शिखर पर चमक—प्रकाश और सब्जबाग इत्यादि के दृश्य पूरी सफलता के साथ निभाए गए हैं। नाटक एक चित्रात्मक शैली का प्रस्तुतीकरण करता है। रंगकर्मियों का मंच पर आकर गाना बजाना रंगरूढ़ि के नियम का पालन करता है। सोदाहरण— ‘चन्द्रहास सो जाता है। थोड़ी देर बाद औरत कमरे में आती है। चन्द्रहास को बेहोश सोता देखकर मुस्कराती है और सिरहानखड़ी होकर नरम लहजे में गाती है— कैसा जादू चलाया दुनिया ने। कैसा साधू बनाया दुनिया ने।''
‘दीन व दुनिया' का उद्देश्य जन—चेतना द्वारा नैतिक आदर्शों की स्थापना द्वारा सर्व जन कल्याण करने का है। इसलिए नाटककार ने भारतीय संस्कृति की आचार-विचार की परम्परा का निर्वाह भी किया है। दुनिया तथा उसकी लड़कियों द्वारा चन्द्रहास का स्वागत और मेहमानवाजी निभाना भारतीय सभ्यता का पालन करना है। औरत द्वारा चन्द्रहास का हाथ-मुँह धुलवाना, इच्छा का नाश्ता परोसना, अँगूर का अर्क पिलाना, पलँग पर बिस्तर बिछा कर सुलाना आदि बिन्दु इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अतिथि देवो भवः की मान्यता का अनुसरण करता है।दीन व दुनिया’ का उद्देश्य जन-चेतना द्वारा नैतिक आदर्शों की स्थापना द्वारा सर्व जन कल्याण करने का है। इसलिए नाटककार ने भारतीय संस्कृति की आचार-विचार की परम्परा का निर्वाह भी किया है। दुनिया तथा उसकी लड़कियों द्वारा चन्द्रहास का स्वागत और मेहमानवाजी निभाना भारतीय सभ्यता का पालन करना है। औरत द्वारा चन्द्रहास का हाथ-मुँह धुलवाना, इच्छा का नाश्ता परोसना, अँगूर का अर्क पिलाना, पलँग पर बिस्तर बिछा कर सुलाना आदि बिन्दु इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अतिथि देवो भवः की मान्यता का अनुसरण करता है। संदर्भित नाटक में आंगिक और वाचिक अभिनय नाटकीय एवं अभिनय के गुणों को दर्शाता है। पात्रों द्वारा किया जाने वाला अभिनय रचना को सौन्दर्य प्रदान करता है। ग्लोब में से औरत का निकल कर इधर-उधर देखना, हैरान होना, चन्द्रहास का शर्माना, औरत का चन्द्रहास को उछल कर तमाचा मारना, चन्द्रहास द्वारा जम्हाई लेना, औरत का नाक भौं चढ़ाना, चन्द्रहास को दुनिया व लड़कियों द्वारा चटाई में लपेटकर अन्दर छिपाना, चन्द्रहास का काँपकर तोतली आवाज़ में बोलना आदि दृश्यों को लेखक ने पाद-टिप्पणियों के नाम से परिचित करवाया है। अभिनयता को प्रस्तुत करता एक उद्धरण-
”चन्द्रहास- (अंगूर खाकर) बड़ा मीठा है। मैंने तो यह फल कभी खाया ही न था। इसको अंगूर कहते हैं न?
दुनिया- हाँ अंगूर कहते हैं। (दूसरा अंगूर पेश करके) लो यह भी खाओ।(चिल्लाकर) अरी इच्छा। जल्दी से लाओ भाई अंगूरों का अर्क। (इच्छा छोटे गिलास में अर्क पेश करती है। चन्द्रहास गिलास मुँह से लगाता है और अर्क पीने लगता है।)
चन्द्रहास- वाह वा वाह! कैसा उम्दा अर्क है।“
नाटक की भाषा में हिन्दी के साथ-साथ उर्दू, अरबी, फारसी मिश्रित शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे-
प्रस्तुत नाटक का रंगमंच प्राकृतिक एवं अकृत्रिम है। रंगमंचीय साज—सज्जा बाह्य चमत्कारों एवं दिखावे से निर्लेप है। नाटक का श्रीगणेश जंगल से होता है, जहाँ एक पेड़ के नीचे चन्द्रहास नाम का पात्र टहल रहा होता है। चन्द्रहास बदस्तूर समाधि में बैठा है। इर्द—गिर्द घास बढ़ गई है। दीमक ने उसके बदन पर मिट्टी चढ़ा दी है। चिड़ियों ने उसकी गर्दन के पीछे घोंसला बना लिया है। सुबह चार बजे का वक्त है। ”इसके अतिरिक्त दुनिया का मकान, साहूकार की दुकान, बाज़ार का दृश्य और अन्ततः दीन का पहाड़ी की सीढ़ियाँ इत्यादि दृश्य एक सफल रंगमंच को प्रस्तुत करते हैं। दीन व दुनिया' नाटक में रंगरूढ़ियों का विशेष ध्यान रखा गया है। नाटक का प्रारम्भ ईश्वरीय वंदना से चल कर लोक कल्याण के गान पर समाप्त होता है। नियति या भाग्य के समान ही इस नाटक में भी फ़रिश्ता स्थान—स्थान पर चन्द्रहास का पथ—प्रदर्शन करता है। जिस प्रकार आकाश भाषित संवाद और प्रकाश रंगरूढ़ि की शोभा को चार—चाँद लगाते हैं, उसी भाँति फरिश्ते का आगमन एवं प्रस्थान भी इसी ओर इंगित करता है। ‘नाटक में नूरानी रोशनी का प्रकट होना, पहाड़ी के शिखर पर चमक—प्रकाश और सब्जबाग इत्यादि के दृश्य पूरी सफलता के साथ निभाए गए हैं। नाटक एक चित्रात्मक शैली का प्रस्तुतीकरण करता है। रंगकर्मियों का मंच पर आकर गाना बजाना रंगरूढ़ि के नियम का पालन करता है। सोदाहरण— ‘चन्द्रहास सो जाता है। थोड़ी देर बाद औरत कमरे में आती है। चन्द्रहास को बेहोश सोता देखकर मुस्कराती है और सिरहानखड़ी होकर नरम लहजे में गाती है— कैसा जादू चलाया दुनिया ने। कैसा साधू बनाया दुनिया ने।''
‘दीन व दुनिया' का उद्देश्य जन—चेतना द्वारा नैतिक आदर्शों की स्थापना द्वारा सर्व जन कल्याण करने का है। इसलिए नाटककार ने भारतीय संस्कृति की आचार-विचार की परम्परा का निर्वाह भी किया है। दुनिया तथा उसकी लड़कियों द्वारा चन्द्रहास का स्वागत और मेहमानवाजी निभाना भारतीय सभ्यता का पालन करना है। औरत द्वारा चन्द्रहास का हाथ-मुँह धुलवाना, इच्छा का नाश्ता परोसना, अँगूर का अर्क पिलाना, पलँग पर बिस्तर बिछा कर सुलाना आदि बिन्दु इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अतिथि देवो भवः की मान्यता का अनुसरण करता है।दीन व दुनिया’ का उद्देश्य जन-चेतना द्वारा नैतिक आदर्शों की स्थापना द्वारा सर्व जन कल्याण करने का है। इसलिए नाटककार ने भारतीय संस्कृति की आचार-विचार की परम्परा का निर्वाह भी किया है। दुनिया तथा उसकी लड़कियों द्वारा चन्द्रहास का स्वागत और मेहमानवाजी निभाना भारतीय सभ्यता का पालन करना है। औरत द्वारा चन्द्रहास का हाथ-मुँह धुलवाना, इच्छा का नाश्ता परोसना, अँगूर का अर्क पिलाना, पलँग पर बिस्तर बिछा कर सुलाना आदि बिन्दु इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं कि भारतीय समाज अतिथि देवो भवः की मान्यता का अनुसरण करता है। संदर्भित नाटक में आंगिक और वाचिक अभिनय नाटकीय एवं अभिनय के गुणों को दर्शाता है। पात्रों द्वारा किया जाने वाला अभिनय रचना को सौन्दर्य प्रदान करता है। ग्लोब में से औरत का निकल कर इधर-उधर देखना, हैरान होना, चन्द्रहास का शर्माना, औरत का चन्द्रहास को उछल कर तमाचा मारना, चन्द्रहास द्वारा जम्हाई लेना, औरत का नाक भौं चढ़ाना, चन्द्रहास को दुनिया व लड़कियों द्वारा चटाई में लपेटकर अन्दर छिपाना, चन्द्रहास का काँपकर तोतली आवाज़ में बोलना आदि दृश्यों को लेखक ने पाद-टिप्पणियों के नाम से परिचित करवाया है। अभिनयता को प्रस्तुत करता एक उद्धरण-
”चन्द्रहास- (अंगूर खाकर) बड़ा मीठा है। मैंने तो यह फल कभी खाया ही न था। इसको अंगूर कहते हैं न?
दुनिया- हाँ अंगूर कहते हैं। (दूसरा अंगूर पेश करके) लो यह भी खाओ।(चिल्लाकर) अरी इच्छा। जल्दी से लाओ भाई अंगूरों का अर्क। (इच्छा छोटे गिलास में अर्क पेश करती है। चन्द्रहास गिलास मुँह से लगाता है और अर्क पीने लगता है।)
चन्द्रहास- वाह वा वाह! कैसा उम्दा अर्क है।“
नाटक की भाषा में हिन्दी के साथ-साथ उर्दू, अरबी, फारसी मिश्रित शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे-
”फ़रिश्ता- मगर करें क्या? मालिके दीन व दुनिया के हुक्म से जितने पैगम्बर, औलिया, ऋषि, सन्त और महात्मा इन्सानों के दर्मियान भेजे गये सबने रहबर की जरूरत की तलकीन (शिक्षा) की और पुरज़ोर अलफ़ाज में तलकीन की, लेकिन इन्सान सुनता ही नहीं, अपनी ही हाँकता है।“
नाटक में आफ़रीनिश, लुत्फ, दुश्वारगुज़ार, मौरिदे रहमत, इत्तिला, सफ़ीर, तशरीफ़, पजमुर्दा, परवरदिगार, मसख़रा, गुलिस्ताँ, तौहीन, परीजाल, इब्तिदाई, कम्बख़्त, फ़रमायश, नहक, मुकामात, बखेड़ा, शुबह, इश्तियार, इत्मीनान्, यकसाँ, मिक़दार, तअल्लुक, पाकज़ात, और मसाफ़त आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है।नाटक के सभी अदाकर अपने रोल के अनुसार अभिनय करते हैं। अपने चरित्र के अनुकूल पात्रों ने भाषा का प्रयोग किया है। फ़रिश्ते और ईमान ने सात्मिक भाषा, दुनिया-इच्छा-विद्या व रागिनी ने चातुर्य एवं वाकपटुता का प्रयोग किया है। दुनिया अपने चरित्र के अनुसार चातुर्य पूर्ण सवादों का उच्चारण करती है- ”औरत-अरी अच्छा! देख, एक नौजवान तपस्वी आने वाला है। घार द्वार व बगीचा ख़ूब साफ कर। सोने-चाँदी के बर्तन तय्यार रख। शिकार हाथ से निकलने न पाये। जरा लड़कियों से भी कहला भेजना कि तय्यार रहें और इतिला मिलते ही फौरन् चली आवें। सफ़ीर भी जोर लगावेगा। जबरदस्त मुकाबिला है।“ इस प्रकार ‘दुनिया’ चन्द्रहास को अपनी बातों द्वारा माया-जाल में उलझा लेना चाहती है।
भाषा को संक्षिप्त और प्रभावशाली बनाने के लिए लोक में प्रचलित आम मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों का अंकन किया गया है, जो इस प्रकार हैं- दीमक के चाटे पेड़, हाथ-मुँह धोना, नाक में दम करना, चींटी के लिए रेंगना, भूले बाह्मण भेड़ खाई फिर खाये तो राम दोहाई, मुँह कड़वा होना, चिकनी-चुपड़ी बातें करना, हड्डियाँ चूर होना, दुम दबाकर भागना, आँखें नीची होना, भाड़ में झोंकना, गोबर के कीड़े की तरह रेंगना, अकल बड़ी या भैंस आदि।
‘दीन व दुनिया’ में पयुक्त होने वाले सभी नाटक प्रतीकात्मक हैं। नाटक के पात्रों के नाम प्रतीकों के आधार पर रखे गए हैं। फरिश्ता और ईमान ‘ईश्वर के दूत’ के रूप में पेश किए गए हैं, जबकि चन्द्रहास ‘जीव’ के रूप में। इसके अतिरिक्त अन्य पात्र भी प्रतीकात्मक हैं। चन्द्रहास दुनिया से उसकी लड़कियों के विषय में पूछता है, जो उनके प्रतीकात्मक होने के तथ्य को स्पष्ट करता है-
”चन्द्रहास- ये लोग कौन हैं?
दुनिया- मेरी लड़कियाँ हैं। यह विद्या है, यह रागिनी है और यह लक्ष्मी है। तीनों
इस्म-बामुसम्मा (यथा नाम तथा गुण हैं। आपके दर्शन के लिए आई हैं।
‘इच्छा द्वारा भी इस बात की पुष्टि की जाती है-
”इच्छा-सरकार मैं अभी शहज़ादियों को बुलवायें लेती हूँ, पर मुझे पुख़्ता यक़ीन है कि लक्ष्मीबाई की सहरकारी (मोहन-क्रिया रागिनीबाई की दिलफ़िगारी (उच्चाटन क्रिया और विद्याबाई की अफ़सूंनिगारी (वशीकरण-क्रिया के सामने इन सबकी एक न चलेगी। अतः लक्ष्मी ‘मोहन रागिनी ‘उच्चाटन’ और विद्या ‘वशीकरण’ का प्रतीक है। तीनों पात्र दुनिया के माया जाल की ओर संकेत करते हैं।
लेखक ने लोक की सहजता का ध्यान रखते हुए नाटक में लोकशैली का ही प्रयोग किया है, जिसमें प्रधान हैं- लोकगीत, लोक वाद्य एवं लोक संगीत। नाटक के छठे दृश्य में देखिए- ‘दुनिया के इशारे पर इच्छा
पँचरंगी फुलवार खिली बागन में।।
आओ सखी टुक सैर को चालें।
चलें फिरें कुछ देखें भालें।
अन्ततः सम्पूर्ण नाटक का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकतत्त्वों की दृष्टि से यह एक सफल नाटक है जिसमें लोक की सहजानुभूति के साथ-साथ धर्म की छाप भी दिखाई पड़ती है।
साहबजी महराज के नाटक साहित्यिक न होकर आध्यात्मिक हैं। साहित्यिक नाटक लिखने के लिए शास्त्रीय नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन करना पड़ता है जिनमें सहजानुभूति का दमन हो जाता है। जबकि लोकनाटक किसी भी प्रकार के शास्त्रीय बंधनों में आबद्ध नहीं होते। अतः इसी तथ्य को स्पष्ट करते हैं। साहबजी महाराज के नाटक जो लोक रंगमंच का आधार लेकर लोकतत्त्वों की बात करते हैं वस्तुतः कहा जा सकता है कि जनजीवन से संबंधित नाटक हैं।
भाषा को संक्षिप्त और प्रभावशाली बनाने के लिए लोक में प्रचलित आम मुहावरों, कहावतों और लोकोक्तियों का अंकन किया गया है, जो इस प्रकार हैं- दीमक के चाटे पेड़, हाथ-मुँह धोना, नाक में दम करना, चींटी के लिए रेंगना, भूले बाह्मण भेड़ खाई फिर खाये तो राम दोहाई, मुँह कड़वा होना, चिकनी-चुपड़ी बातें करना, हड्डियाँ चूर होना, दुम दबाकर भागना, आँखें नीची होना, भाड़ में झोंकना, गोबर के कीड़े की तरह रेंगना, अकल बड़ी या भैंस आदि।
‘दीन व दुनिया’ में पयुक्त होने वाले सभी नाटक प्रतीकात्मक हैं। नाटक के पात्रों के नाम प्रतीकों के आधार पर रखे गए हैं। फरिश्ता और ईमान ‘ईश्वर के दूत’ के रूप में पेश किए गए हैं, जबकि चन्द्रहास ‘जीव’ के रूप में। इसके अतिरिक्त अन्य पात्र भी प्रतीकात्मक हैं। चन्द्रहास दुनिया से उसकी लड़कियों के विषय में पूछता है, जो उनके प्रतीकात्मक होने के तथ्य को स्पष्ट करता है-
”चन्द्रहास- ये लोग कौन हैं?
दुनिया- मेरी लड़कियाँ हैं। यह विद्या है, यह रागिनी है और यह लक्ष्मी है। तीनों
इस्म-बामुसम्मा (यथा नाम तथा गुण हैं। आपके दर्शन के लिए आई हैं।
‘इच्छा द्वारा भी इस बात की पुष्टि की जाती है-
”इच्छा-सरकार मैं अभी शहज़ादियों को बुलवायें लेती हूँ, पर मुझे पुख़्ता यक़ीन है कि लक्ष्मीबाई की सहरकारी (मोहन-क्रिया रागिनीबाई की दिलफ़िगारी (उच्चाटन क्रिया और विद्याबाई की अफ़सूंनिगारी (वशीकरण-क्रिया के सामने इन सबकी एक न चलेगी। अतः लक्ष्मी ‘मोहन रागिनी ‘उच्चाटन’ और विद्या ‘वशीकरण’ का प्रतीक है। तीनों पात्र दुनिया के माया जाल की ओर संकेत करते हैं।
लेखक ने लोक की सहजता का ध्यान रखते हुए नाटक में लोकशैली का ही प्रयोग किया है, जिसमें प्रधान हैं- लोकगीत, लोक वाद्य एवं लोक संगीत। नाटक के छठे दृश्य में देखिए- ‘दुनिया के इशारे पर इच्छा
पँचरंगी फुलवार खिली बागन में।।
आओ सखी टुक सैर को चालें।
चलें फिरें कुछ देखें भालें।
अन्ततः सम्पूर्ण नाटक का अवलोकन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि लोकतत्त्वों की दृष्टि से यह एक सफल नाटक है जिसमें लोक की सहजानुभूति के साथ-साथ धर्म की छाप भी दिखाई पड़ती है।
साहबजी महराज के नाटक साहित्यिक न होकर आध्यात्मिक हैं। साहित्यिक नाटक लिखने के लिए शास्त्रीय नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन करना पड़ता है जिनमें सहजानुभूति का दमन हो जाता है। जबकि लोकनाटक किसी भी प्रकार के शास्त्रीय बंधनों में आबद्ध नहीं होते। अतः इसी तथ्य को स्पष्ट करते हैं। साहबजी महाराज के नाटक जो लोक रंगमंच का आधार लेकर लोकतत्त्वों की बात करते हैं वस्तुतः कहा जा सकता है कि जनजीवन से संबंधित नाटक हैं।