समकालीन कथा साहित्य: आदिवासी और दलित
जीवन की उपस्थिति
समकालीन दौर में तीन मुद्दों ने हिन्दी साहित्य में अपना
ज्वलन्त रूप धारण किया हुआ है:- दलित साहित्य, आदिवासी साहित्य और स्त्री साहित्य.
ये सभी हाशियागत समुदायों की अस्मिता की अपनी अलग-अलग समस्याएँ हैं क्योंकि ये सभी
वर्गों की उपस्थिति भारतीय समाज में उपेक्षित रही है। एक ऐसा साहित्य जो केवल दलितों
और आदिवासियों के लिये ही लिखा गया हो, दलित और आदिवासी साहित्य कहलाता है। गैर
दलित और आदिवासी साहित्य का लेखक केवल दलित या आदिवासी ही हो सकता है। यदि कोई गैर
दलित या गैर आदिवासी लेखक दलित अथवा आदिवासी साहित्य लिखता है तो वह केवल दलितों
एवं आदिवासी लोगों के लिये सहानुभूति मात्र ही है। “कुछ लोगों का मानना है कि गैर
दलित लेखकों ने भी दलित साहित्य की रचना की है जिसमें प्रेमचन्द और राहुल
साकृत्यायन जैसे रचनाकार भी शामिल हुये हैं, किन्तु उनकी दलित अवधारणा
अस्पृश्यता-निवारण तक ही सीमित हो गई है। पुरानी शब्दावली में इसे दलित साहित्य का
रसाभास कह सकते हैं। दलित, शूद्र, चमार, अन्त्यज आदि शब्दों से संबोधित किया जाता
रहा है। इन सभी शब्दों के स्थान पर संविधान ने इन्हें ’अनुसूचित जाति’ का नाम दे
दिया है। ’अनसूचित जनजाति’ के लिये ’आदिवासी’ शब्द दोनों के अन्तर को स्पष्ट करने
में ज़्यादा सक्षम है। आज आदिवासी साहित्य भी अपनी स्वतन्त्र पहचान बना रहा है.”
1
आदिवासी समाज सदियों से जातिगत भेदों, वर्ण व्यवस्था, विदेशी आक्रमणों, अंग्रजों और वर्तमान में सभ्य
कहे जाने वाले समाज द्वारा दूर-दराज जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ा गया है। अज्ञानता
और पिछड़ेपन के कारण उन्हें सताया गया है। शिक्षित न होने के कारण यह समाज सदियों
से मुख्यधारा से अलग रहा। भारत में यह जनजातीय समाज विभिन्न भागों में तथा विभिन्न
भाषिक प्रदेशों में हैं। आदिवासियों की लोक-कला साहित्य में सदियों से मौखिक रूप
में ही रही है। उनकी भाषा का अदुरुस्थ व्याकरण, लिपि का
विकास न होने के कारण साहित्य जगत में आदिवासी रचनाकार और उनका साहित्य
गैर-आदिवासी साहित्य की तुलना में कम मिलता है। स्वतन्त्रता के बाद प्रकाश में आए
दलित और स्त्री-विमर्श के बाद का विमर्श आदिवासी विमर्श कहलाता है।
प्रो. वीर भारत तलवार का मानना है कि- “आदिवासी
संस्कृति का सवाल, आदिवासियों की भाषाओं का सवाल, उनके धर्म का सवाल
कभी किसी ने नहीं उठाया। मैं आपको एक उदाहरण दूं, आदिवासी
संस्कृति की कोई गहरी जानकारी गैर-आदिवासियों को नहीं है। उनका एक नितांत अलग दृष्टिकोण
आदिवासियों की संस्कृति के बारे में बना हुआ है। इसलिए हम उस सवाल को उठा ही नहीं
सकते और मैंने जैसा कहा कि आदिवासी खुद उस प्रकार से विमर्श नहीं करते हैं कि एक
विमर्श खड़ा हो।“ 2
अब प्रश्न उठता है
कि वास्तव में आदिवासी साहित्य है क्या ? क्या आदिवासी विषय पर लिखा गया साहित्य
आदिवासी साहित्य है? या आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य है?
अथवा ‘आदिवासियत’ (आदिवासी
दर्शन) के तत्वों वाला साहित्य ही आदिवासी साहित्य है? पहली मान्यता में गैर
आदिवासी लेखकों की श्रेणी है, परन्तु समर्थन में कुछ आदिवासी लेखक भी हैं- जैसे रमणिका
गुप्ता, संजीव, राकेश कुमार सिंह, महुआ माजी, बजरंग तिवारी गणेश देवी आदि गैर
आदिवासी लेखक हैं और हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, आईवी हांसदा
इत्यादि आदिवासी लेखक हैं।
दूसरी अवधारणा उन आदिवासी लेखकों और साहित्यकारों की है जो जन्मना और स्वानुभूति
के आधार पर आदिवासियों द्वारा लिखे गये साहित्य को ही आदिवासी साहित्य मानते हैं। तीसरा
मत उन आदिवासी लेखकों का है जो आदिवासियत के तत्वों का निर्वाह करने वाले साहित्य
को ही आदिवासी साहित्य के रूप में स्वीकार करते हैं। आदिवासी
साहित्य मुख्यधारा की संस्कृति के दायरे से बाहर रहकर आदिवासियों के जीवन को
व्यक्त करनेवाला, उनकी संस्कृति, परम्पराएँ, संघर्ष, इतिहास को एक स्तर से ऊपर
उठाने वाला साहित्य है। बहुत सारे साहित्यकारों
ने आदिवासियों के उन प्रश्नों की तरफ ध्यान देने वाले साहित्य का निर्माण किया है
जो आदिवासियों में प्रेरणा, जागरुकता, अपने हक के लिये लड़ने की शक्ति दे सके। समय-समय
पर गैर आदिवासी रचनाकारों ने भी आदिवासी जीवन और समाज को अभिव्यक्त किया। साहित्य
में आदिवासी जीवन की प्रस्तुति की इस पूरी परम्परा को हम समकालीन आदिवासी साहित्य
की पृष्ठभूमि के तौर पर रख सकते हैं।
आरंभिक
और ज्यादातर आदिवासी साहित्य गीत या कविता के माध्यम से हमारे सामने आता है। आदिवासी
कवियों में वाहरु सोनवणे, हरिराम मीणा, अनुज लुगुन, केशव मेश्राम, महादेव टोप्पो, डॉ.रामद्याल मुंडा, दिनानाथ मनोहर, आदि. का नाम विशेष रुप से लिया
जाता हैं। डॉ. मंजू ज्योत्स्ना ने ’ब्याह’ कविता, सरिता बड़ाइक ’मुझे भी कुछ कहना है’ आदि कविताएँ
लिखीं हैं। ये कवियत्रियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से सामाजिक वैयक्तिक जीवन-संघर्ष
की समस्याओं को व्यक्त किया है। आदिवासी कविताओं में विभिन्न सामाजिक विद्रोह, नारी का
जीवन-संघर्ष, विस्थापन, अस्तित्व
की समस्या और शिक्षा जैसी समस्याएँ प्रमुख रूप से देखी जाती हैं जिसके लिए
आदिवासियों को समय-समय पर आंदोलन, विद्रोह, और क्रांतियाँ आदि करनी पड़ी हैं।
पुर्वोत्तर के आदिवासियों का आंदोलन अपनी पहचान का आंदोलन है। एक सौ पचास वर्ष पहले से वहाँ आदिवासी साहित्य रचा जाने लगा है। जो लोकगीत, लोककथाओं के मौखिक रुप में मिलता है। असम, मिजोराम, नागालैंड, मणिपूर का आंदोलन अपनी अस्मिता के साथ साहित्य को
ढूँढने की कोशिश कर रहा है। वहाँ पर आज बोड़ो साहित्य लोकगीतों, लोककथाओं और लोकगाथाओं में देखने को मिलता है। कवियों, कहानीकारों एवं उपन्यासकारों
ने बोड़ो साहित्य की समृद्ध परंपरा को चलाया है। अपनी संस्कृति को बचाने में एक
होकर आदोलन को सशक्त बनाया है। भारत का पूर्वोत्तर भाग आज भी अपने मुलभूत हकों के
लिए लड़ रहा है उनके प्रदेश में देशी और विदेशी घुसपैठ के कारण वह खुद अपनी
संस्कृति, परंपरा और आदिम मूल्यों को घृणा
की दृष्टि से देखने लगा है। वहाँ के लोगों का साहित्य देखा जाए तो उनकी कविताओं
में वह पीड़ा एवं संकल्प को अभिव्यक्त करता है। आज भी वहाँ अपनी मूल संस्कृति और
भाषा बचाकर रखने में कामयाब है। पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव एवं अपने ऊपर लादे
गए संस्कार को वह व्यंग्य रुपी शब्द बाणों से भेदता है। ऐसे ही- “मेघालय के कवि ‘पॉल लिंग
दोह’ की ‘बिकाऊ है’ कविता में कवि मन अपनों को ही
कोसता है- “बिकाऊ है हमारा स्वाभिमान /
हमारी मान्यताएँ / हमारी सामूहिक चेतना / अतिरिक्त बोनस :
ये सारी चीजें लुटाने के भाव उपलब्ध है। / विशेष: संपर्क के लिए टेलिफोन नंबर की
जरुरत नहीं / हमारे एजंट हर कहीं है।”3
1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण की नीतियों से
तेज हुई आदिवासी शोषण की प्रक्रिया के प्रतिरोध स्वरूप आदिवासी अस्मिता और
अस्तित्व की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पैदा हुई रचनात्मक ऊर्जा आदिवासी
साहित्य है। इसमें आदिवासी और गैर-आदिवासी रचनाकार बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं।
इस साहित्य का भूगोल, समाज, भाषा,
संदर्भ शेष साहित्य से उसी तरह पृथक है जैसे स्वयं आदिवासी समाज,
और यही पार्थक्य इसकी मुख्य विशेषता है। यह आदिवासी साहित्य की
अवधारणा के निर्माण का दौर है। आदिवासी साहित्य अस्मिता की खोज, शोषकों द्वारा किए गए और किए जा रहे शोषण के विभिन्न रूपों के उद्घाटन तथा
आदिवासी अस्मिता व अस्तित्व के संकटों और उसके खिलाफ हो
रहे प्रतिरोध का साहित्य है। यह उस परिवर्तनकामी चेतना का रचनात्मक हस्ताक्षेप है
जो देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति किसी भी प्रकार के भेदभाव का पुरजोर
विरोध करती है तथा उनके जल, जंगल, जमीन
और जीवन को बचाने के हक में उनके ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार के साथ खड़ी होती है।
“महाराष्ट्र में आदिवासी बहुत
ताकतवर हैं। झारखंड के बाद शायद वहीं ज्यादा ताकतवर हैं। आदिवासियों के बड़े-बड़े
साहित्य सम्मेलन होते हैं और अब तक नौ आदिवासी सम्मेलन हो चुके हैं। महाराष्ट्र के
ज्यादातर आदिवासी मराठी भाषा में अपना साहित्य लिखते हैं। बहुत कम लोग हैं
जिन्होंने अपनी आदिवासी भाषा में साहित्य लिखा और जो लिखा वह भी बहुत कम लेखकों ने
लिखा।“4 “साहित्य जगत में आदिवासी मुद्दों को
उठाने, उनसे
जुड़े सृजनात्मक साहित्य को प्रोत्साहन देने में बहुत सारी पत्र-पत्रिकाओं ने भी अहम
योगदान दिया है- ‘युद्धरत आम आदमी’ ,
‘अरावली उद्घोष’, ‘झारखंडी
भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा’, ‘आदिवासी
सत्ता’ आदि। इनके अलावा ‘तरंग भारती’ के माध्यम से पुष्पा टेटे, ‘देशज स्वर’ के माध्यम से सुनील मिंज और सांध्य दैनिक ‘झारखंड
न्यू्ज लाइन’के माध्यम से शिशिर टुडु आदिवासी विमर्श को
बढ़ाने में लगे हैं। बड़ी संख्या में मुख्यधारा की पत्रिकाओं ने आदिवासी विशेषांक
निकालकर आदिवासी विमर्श को आगे बढाने में मदद की है, जैसे- ‘समकालीन जनमत’ ‘दस्तक’,
‘कथाक्रम’, ‘इस्पातिका’ आदि।
शुरू में हिंदी की प्रमुख पत्रिकाओं ने आदिवासी मुद्दों को छापने में उतनी रुचि
नहीं दिखाई लेकिन अब विमर्श की बढ़ती स्वीकारोक्ति के साथ ही इन पत्रिकाओं में
आदिवासी जीवन को जगह मिलने लगी है। छोटी पत्रिकाओं में आदिवासी लेखकों को पर्याप्त
जगह मिल रही है।“ 5
उडि़या में गोपीनाथ मोहांती कृत ’अमृत संतान’ और ’प्रजा’
जैसे उपन्यास लिखकर आदिवासी साहित्य में जान डालने का सफल प्रयास किया है।
किस्सागो को आदिवासी साहित्य के लिये नोबेल पुरस्कार मिला है। अभी मारंगगोड़ा और
ग्लोबल गांव के देवता वगैरह की चर्चा बल पकड़ रही है। ‘धूणी तपे तीर’ की बाजार में जो सफलता है, वो राजस्थान के एक बहुत
बड़े आंदोलन से जुड़े होने के कारण है। किशन पाल परख कृत ’पथेरा’ (कहानी
संग्रह), विपिन बिहारी का ’हमलावर’ उपन्यास, परमानंद राम का ’एकलव्य’, शीलबोधी का ’कोलार जल रहा है’, रमणिका गुप्ता
का ’सीता-मौसी’ उपन्यास, ’बहू जुठाई’ कहानी संग्रह, ’भीड़ सतह में चलने लगी है’, ’भला मैं
कैसे मरती’, ’आदमी से आदमी तक’, ’विज्ञापन बनते कवि’ कविता संग्रह, सरिता बड़ाइक का ’नन्हें सपनों का सुख’ कविता संग्रह,
केदारनाथ मीणा कृत ’आदिवासी कहानियाँ’, कैलाश चन्द्र चौहान द्वारा रचित ’भँवर’
उपन्यास, पूनम तूषामड़ रचित कहानी संग्रह ’मेले में लड़की’, ओमप्रकाश बाल्मीकि कृत ’छतरी’,
मोहनदास नैमिशरा द्वारा लिखित ’महानायक बाबा साहब डा अम्बेडकर’ उपन्यास, श्यौराज सिंह बेचैन का ’क्रौंच हूँ मैं’, ’नई
फसल’ काव्य संग्रह, 'मेरा बचपन मेरे कंधों पर' आत्मकथा,
जयप्रकाश कर्दम द्वारा लिखित ’खरोंच’ कहानी संग्रह आदि लेखकों ने आदिवासी जीवन पर
जो रचनाएँ लिखीं वे विशेष उल्लेखनीय हैं।
यदि
आदिवासी साहित्य का जन्म उड़िया से हुआ है तो हिन्दी में दलित विमर्श मराठी साहित्य
से आया है. हिन्दी साहित्य दलित चिंतन के बिना अधूरा है। इसकी गूँज सन 1980
के बाद ही हुई है। हंस के सम्पादक राजेन्द्र यादव कहते हैं कि- “ यदि
हमारा साहित्य दलित साहित्य के लिये जगह नहीं छॊड़ता तो वह शीघ्र ही अप्रासंगिक हो
जायेगा। “ 6 दलित साहित्य का उदभव माराठी में बाबूराम बाबुल की ’जेबहा
मी जात चोर ली’ कहानी संग्रह से हुआ है।
नया पवार की ’बलुआ’, लक्ष्मण माने की ’उपरा’, लक्षमण गायकवाड़ की ’उठाईगीर’, शंकरराव खरात की
’जीर्ण आमुचं’, सोन कामले की ’यादों के पंछी’, माराठी साहित्य में विशिष्ट स्थान
रखती हैं। हिन्दी में ओमप्रकाश बाल्मीकि का ’जूठन’, तुलसीराम कृत ’मुर्दहिया’
आत्मकाथाएँ दलित साहित्य का मेरूदन्ड हैं। मराठी दलित साहित्य का आधार यदि फुले और
अंबेडकर हैं तो हिन्दी में कबीर और राहुल साकृत्यायन का गहरा प्रभाव है।
“गैर
दलित रचनाकारों की रचनाओं में दलितों की मुक्ति का स्वप्न भले ही न हो, किन्तु
उनके माध्यम से दलितों के जीवन की यातना और पीड़ा का दस्तावेज तो तैयार हुआ ही है। यथा रांगेय राघव का ’मुर्दों का टील”, ’कब तक
पुकारूँ’, फणीश्वरनाथ रेणु का ’मैला आँचल’, आचार्य चतुर्सेन शास्त्री का ’सोमनाथ’,
’गोली’, ’उदयास्त’, पांडेय बेचन शर्मा उग्र का ’धनी का मोड़’ और ’प्रतीति’, रामदरश
मिश्र का ’जल टूटता हुआ’, ’सूखता हुआ तालाब’, शिवप्रसाद सिंह का ’अलग अलग वैतरणी’,
सीताराम का ’नमस्कार’, नरेन्द्र कोहली का ’अवसर’, अमृतलाल नागर का ’नाच्यो बहुत
गोपाल’, मन्नु भंडारी का ’महाभोज’, यादवेन्द्र शर्मा का ’हज़ार घोड़ों का सवार’,
गिरिराज किशोर का ’यथाप्रस्तावित’, ’परिशिष्ट’, रामकुमार वर्मा का ’मोतिया’, शैलेश
मटियानी का ’नागवल्ल्री’, नागार्जुन का ’बलचनमा’, हरिसुमन बिष्ट का ’आसमान झुक रहा
है’, महाश्वेता चतुर्वेदी का ’भाग्य का जादूगर’, ’ऐसी भक्ति करै रैदासा’ आदि.
हिन्दी दलित साहित्य दलित लेखकों की दृष्टि से अधिक स्मृद्ध तो नहीं है किन्तु
ओमप्रकाश बाल्मीकि, पुरर्षोत्तम सत्यप्रेमी, मोहनदास नैमिशराय, दयानंद बटोही,
रघुनाथ प्यासा, शिवचन्द्र उमेश, कालीचरण स्नेही, बी.एल. नैयर, कुसुम वियोगी, प्रेम
कपाड़िया, जयप्रकाश कर्दम, काबेरी, बुद्धशरण हंस, लालचन्द्र राही, पारसनाथ, सुशीला
टाकभौरे, सी.बी.भारती, भागीरथ मेघवाल आदि मुख्य हैं. कविता के क्षेत्र में भी दलित
लेखन सार्थक रूप से उभरा है। निराला की कविता ’भिक्षुक’, ’वह तोड़ती पत्थर’, ’विधवा’,
बालकृष्ण शर्मा नवीन की कविता ’जूठे पत्ते’ और नागार्जुन की कविता ’हरिजनगाथा’
दलितों की यातना और लाचारी की अभिव्यंजना है। इन रचनाओं में दलित जीवन का चित्रण
है, किन्तु दलितों की दुनिया नहीं. इसकी अभिव्यक्ति केवल दलित कवियों में ही मिलती
है। इन कवियों में रामशिरोमणि होरिल की ’कील के काँट”, सुखबीर सिंह का ’बयान बाह”,
मनोज सोनकर का ’शोषितनाम”, ओमप्रकाश बाल्मीकि का ’सदियों का संता”, पुरुषोत्तम सत्याप्रेमी का ’सवालों का
सूर”, धर्मवीर का ’हीराम”, श्यामसिंह राशि का ’एकलव्” और जयप्रकाश कर्दम का ’गूँगा
नहीं था मै” आदि ने हिन्दी दलित लेखन को सश्क्तता दी है।” 7 ’परती परिकथा’ में उपन्यासकार निर्धन,
भूखी, पिछड़ी जनता की समस्याओं को ढूँढने का कार्य करता है जबक ’मैला आँचल’ में
रेणु जी ने भयावह यथार्थ को सामने लाने का प्रयास किया है। विमल चन्द्र पांडे की कहानी ’सोमनाथ का
टाईमटेबल’ सामाजिक सरोकार के तहत एक दलित के प्रति सवर्णों के अपमानजनक रवैये का
खुलकर विरोध करती है। मधु कांकरिया ने अपने उपन्यास ’पत्ताखोर’ में सुनियोजित ढंग से गंदी बस्ती व
संकरी गलियों एवं फुटपाथ पर रहने वाली ज़िन्दगी का
समाज के वंचितों, पीड़ितों और शोषितों के माध्यम से वर्णन किया है। चित्रा
मुदगल की ’भूख’ कहानी मुंबई के स्लम जीवन को उद्घाटित करती है।
सदियों
की मानसिक यातना, तिरस्कार, शोषण, अन्याय से जूझने के बाद 21 वीं
सदी में आदिवासी और दलित जीवन को एक पहचान मिल पाई है। कोई भी समाज अथवा साहित्य वहाँ के
प्रत्येक वर्ग, समुदाय, संस्कृति एवं सभ्यता से ही परिपूर्ण होता है। यदि समकालीन
युगीन साहित्य में दलित और आदिवासी साहित्य को समावेशित नहीं किया जाता है तो
साहित्य अधूरा एवं निर्जीव है। साहित्य की प्रासंगिकता तभी सार्थक व चिरंजीवी बनी
रह सकती है जब उसमें समस्त समाज का लोक मांगल्य समाहित हो।
सन्दर्भ
ग्रन्थ सूची
1. फ़ॉरवर्ड प्रैस, मई 2015, पृष्ठ 31
3.
सं.रमणिका गुप्ता, आदिवासी लेखन एक उभरती चेतना, सामयिक प्रकाशन,संस्करण 2013 , पृष्ठ 69
4.
प्रो. वीर भारत तलवार, प्रख्यात
हिन्दी आलोचक, ब्लाग स्पाट, जे एन यु
5. फारवर्ड प्रेस ,बहुजन साहित्य वार्षिक ,अप्रैल, 2013 अंक
6.
श्यौराज सिंह चौहान बेचैन, उत्तर
सदी के हिन्दी कथा साहित्य में दलित विमर्श, अनामिका प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014,
पृ.76
7.
आदित्य प्रचण्डिया, साहित्य और संस्कृति का अंत संबंध, हिन्दी
साहित्य निकेतन बिजनौर, 2015, पृ.211