’धूमिल’ नये कवियों में एक जाना-माना नाम है. अपनी थोड़ी सी रचनायें और बड़ी सी
ख्याति पीछे छोड़ जाने वाले कुछ गिने-चुने हिन्दी सहित्यिकों में उक्त कवि को
गिनाया जा सकता है. ’धूमिल’ गरीब आदमी की भूख-प्यास का सुख-दुख का और जनता जनार्दन
के आस-पास का कवि था. इसलिये ’धूमिल’ को ’धूमकेतु’ का मिथक दिया गया.
जीवन परिचय- ’धूमिल’ का वास्तविक नाम ’सुदामा प्रसाद पांडे’ था. इनका जन्म 9 नवंबर 1936 ई. उत्तर प्रदेश के वाराणसी के ’खेवली’ नामक गांव में हुया
था. इनके पिता जी का नाम शिवनायक पांडे था जो साधारण कृषक थे और आप जयशंकर प्रसाद
के मुनीम भी रहे और अंत में किराने की दुकान भी खोल ली, इनकी माता राजवंती धार्मिक
विचारों की महिला थी. ग्यारह वर्ष की आयु में पिता की मृत्यु उपरान्त परिवार का
सारा भार धूमिल के नन्हे कन्धों पर आ गया. अगले ही वर्ष आपका विवाह वाराणसी निवासी
पंडित नान्हक दीक्षित की कन्या ’मूरत देवी’ से हो गया. सन 1953 में आपने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की. आर्थिक कमज़ोर स्थिति के कारण
इण्टरमीडिएट न कर सके और उसके बाद कलकत्ता रोज़ी-रोटी की तलाश के लिये चले गये.
वहां पर काम न मिलने पर लोहा ढोने का काम भी किया. वहां पर भी अमीर, गरीब, शोषितों
को देखा और चार चार वर्ष बाद ये नौकरी छोड़ दी. बाद में काशी हिन्दु विश्व विद्यालय
स्थित औद्योगिक प्रशिक्षण केन्द्र आई.टी.सी. में विद्युत प्रविधि में प्रशिक्षण
हेतु 1957 में प्रवेश लिया. इसी विभाग में विद्युत अनुदेशक की नौकरी
मिल गई. अर्थात आजीवन वाराणसी के इसी संस्थान में बने रहे. ब्रेन ट्युमर के कारण 10 फरवरी 1975 शाम के 9:50 पर आप इस संसार से विदा हो गये.
सठोत्तरी कविता के आकाश में ’धूमिल’ धूमकेतु की तरह उत्पन्न हुये और अत्यन्त अल्प
समय में अपने कविता कर्म के द्वारा हिन्दी सहित्यकारों के जगमगाते सितारे बन गये.
रचनायें- कवि धूमिल की काव्य यात्रा कुल
त्रिविक्रम काव्य यात्रा है, अर्थात उनके कुल तीन कविता संग्रह प्रकाशित हुए है-
(1) संसद से सड़क तक (1972)
(2) कल सुनना मुझे (1977)
(3) सुदामा पांडे का प्रजातंत्र (1984)
(1)
संसद से सड़क तक- धूमिल का पहला काव्य-संग्रह
’संसद से सड़क तक’ सन 1972 ई. में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ. इस काव्य संग्रह
ने हिन्दी जगत में धूमिल को बहुचर्चित बना दिया. उनको सन 1975 ई. में साहित्य
परिषद द्वारा ’मुक्तिबोध’ पुरुस्कार प्रदान किया गया. उनके मरणोपरान्त साहित्य
अकादमी ने सन 1979 में इन्हें साहित्य पुरुस्कार से सम्मानित
किया. इस काव्य-संग्रह में 25 कविताएं हैं जिनमें ’मोचीराम’,
’नक्सलबाड़ी’, ’कविता’ और ’पटकथा’ आदि प्रसिद्ध कविताएं हैं. इनकी यह कविता सबसे
लम्बी कविता है.
इस काव्य-संग्रह की सभी कविताएं कथ्य फलक के दृष्टि
से महत्त्वपूर्ण एवं बहुआयामी हैं. इतिहास बोध के प्रति ईमानदारी एवं ऐतिहासिक समझ
सामयिक स्थितियों की सही पहचान इनकी कविताओं में हुई है. वे संसार के टूटते हुये
मूल्यों का पर्दाफाश करने के लिये काव्य-संसार में आये.
उनकी ’कविता’ नामक कविता में शब्दों से
चेहरे जानने का प्रयास करते हुये कवि ने अर्थ की महत्ता. स्त्री के गर्भाधान की
स्थिति से लड़की के तीसरे गर्भपात से धर्मशाला होने का उल्लेख है. वे इसमें कहते
हैं कि-
“एक
सम्पूर्ण स्त्री होने से पहले ही
गर्भाधान
की क्रिया से गुजरते हुये
उसने
जाना कि प्यार
घनी
आबादी वाली वस्तियों में
मकान
की तलाश है
लगातार
बारिश से भीगते हुये
उसने
जाना कि लड़की
तीसरे
गर्भाधान के बाद
धर्मशाला
हो जाती है.” 1
यह कवि में श्लील व अश्लील का झंझट है कि किस प्रकार
एक नाबालिग लड़की प्यार के मोहपाश में बंधकर धर्मशाला बना दी जाती है.
धूमिल की ’मोचीराम’ कविता भी
समकालीन परिवेश की सच्चाई को व्यक्त करती है. इसमें जातिगत वर्ग भेद को स्पष्ट
किया गया है.
“बाबू जी. सच कहूँ- मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये हर आदमी एक जोड़ी जूता है” 2
’पटकथा’ नामक कविता में कवि ने
स्वतन्त्रता के 20 वर्ष बाद की स्थिति को व्यापक धरातल पर प्रस्तुत किया है. वह
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात राजनेताओं के व्यवहार में सुधार व बदलाव लाने की
कामना करता रहा किन्तु यह समस्याएँ और भी गंभीर व विकट रूप धारण करती गई. चारों ओर
देश में शोषण का वातावरण फैल गया. चुनाव के नाम पर छलावा होने लगा. कवि जनता और
संसद का सही अर्थ जानने के लिये इस रचना को अनेक संदर्भों में प्रस्तुत करता है.
इसमें प्रधानमंत्री के निधन, पड़ौसी देश से आक्रमणों को कवि ने अपने दुख से व्यंजित
किया है. ऐतिहासिक बोध का मार्मिक चित्र इस कविता में देखा जा सकता है-
“हर तरफ कूआँ है
हर तरफ़ खाई है
यहाँ सिर्फ़ वह आदमी, देश के करीब
है,
जो या तो मूर्ख है
य फिर गरीब है.” 3
(2)
कल सुनना मुझे- ’कल सुनना मुझे’ धूमिल का दूसरा
काव्य-संग्रह है जो कि मृत्योपरान्त प्रकाशित हुआ. इस काव्य-संग्रह पर ’साहित्य
अकादमी’ द्वारा उन्हें पुरुस्कार भी प्राप्त हुआ. इस काव्य-संग्रह में 37 कविताएँ हैं,
जिनके माध्यम से समकालीन वास्तविकताओं को कवि ने स्पष्ट करने का प्रयास
किया है.
‘प्रजातन्त्र के विरुद्ध’, ’रोटी और संसद’, ’खेवली’, ’किस्सा राजतन्त्र’
इत्यादि कविताएँ इस काव्य-संग्रह में संकलित हैं. ’जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु पर’
में युवा कवि अपने नायक के न रहने पर विह्वल हो जाता है किन्तु वह ’रिश्तों’ और
’रीढ़ की हड्डी’ में बल भी चाह रहा है. उसे विकास अभियानों और चमन को फूलों से भर
देना चाहता है.
“दिन
जो सुबह-सुबह शुरू हुआ
दोपहर में
खत्म हो गया
मेरा सूरज खो गया.” 4
लेकिन जब कवि का मुकाबला नेहरू युग के बाद यथार्थ से होता है तब क्रमश:
’देश-प्रेम’, ’मेरे लिये’, ’किस्स जन्तन्त्र’ की ऐसी तल्ख पंक्तियाँ उपजती हैं-
“देश-प्रेम मेरे लिये/अपनी सुरक्षा का/ सर्वोत्तम
साधन है........दो आँखें दरवाजा खोलती हैं/ दो बच्चे टाटा कहते हैं/ एक फटेहाल कफ
कलर/ टांगों में अकड़ भरता है/ और खटर-पटर एक ढ्ढ्ठा साइकिल/ लगभग भागते हुये चेहरे
के साथ/ दफतर जाने लगती है.” 5
परिवार
की हालत को धूमिल देश की दुर्दशा के संकेतों में बदल देते हैं. लेकिन स्थितियाँ और
गंभीर होती जाती हैं और ’प्रजातन्त्र के विरुद्ध’ तथा ’कविता की श्रीकाकुलम’ जैसी
कविताओं में धूमिल इशारों को त्यागकर ’पेट में फँसे धुरे’ के साथ भागती
है-उल्लारक्खों उसकी उसकी खून भरी मुठ्ठी में भिंचा हुया राशनकार्ड, और एक आदमी/
दूसरे आदमी की गर्दन/ धड़ से अलग कर देता है/ जैसे एक मिस्त्री बल्ट से/ नट अलग कर
देता है/ तुम कह रहे हो यह हत्या हो रही है/ मैं कहता हूँ-मैकेनिज़्म टूट रहा है.
जैसी झिंझोड़ती हुई वास्तविक; आक्रामक प्रतिबद्धता तक आ जाते हैं.” 6
गांव का गैर रूमानी चित्रणा भी शायद धूमिल ने ही पहली
बार हिन्दी में इतनी निर्मम सूक्ष्मता से किया है- “ वहाँ न जंगल है न जन्तन्त्र/
वहाँ कोई सपना नहीं......../ वहाँ सबकुछ सदाचार की तरह सपाट/ और ईमानदारी की तरह
असफल है. (खेवली) मेरे गांव में हर रोज़ ऐसे ही होता है/ नफ़रत की आड़ में/ चीज़ें
अपना चेहरा रख कर उतार देती हैं/ वक्त के फालतू हिस्सों में/ खेतों के भट्ठे इशारे
गूजते हैं/ पानी की जगह/ आदमी का खून रिसता है,”7
धूमिल की यह भावुकताविहीन दृष्टि उसकी कविता की एक वृहत्तर शक्ति है. यही
उन्हें हिन्दी का पहला दुस्साहसी क्रान्तिधर्मी युवा कवि बनाती है.
(3) सुदामा पांडे का प्रजातन्त्र- धूमिल का यह तीसरा काव्य-संग्रह
था जो कि उनके पुत्र रत्नाकर के प्रयासों से प्रकाशित हुआ. इस काव्य-संग्रह में
उनकी 61 कविताएँ हैं.
इसमें उन्होंने अपने जन्म के नाम का प्रयोग किया है. इसमें ’सुदामा पांडे’ The
man who suffers हैं जबकि कवि ’धूमिल’ The mind which
creats हैं. वे स्वीकारते हैं-
“न कोई प्रजा है
न कोई तन्त्र है
यह आदमी के खिलाफ़
आदमी का खुला सा
षडयन्त्र है.” 8
’नौ मादा कवियाएँ’ जिनके केन्द्र में दाम्पत्य है जिसमें प्रेम, तनाव. समाज और
स्मृतियाँ हैं. यदि उद्यम शारीरिकता है तो स्त्री एक सुंदर और सार्थक कविता भी-
“ तुम्हारा चेहरा/ जैसे कविता की ज़मीन है
तुम एक सुंदर और सार्थक कविता हो
मेरे लिये.” 9
’गुफ़तगू’ में भूख के केन्द्र में कोई भाषा नहीं. पति पत्नी बीच बच्चों और भोजन
की चिन्ता है जो दाम्पत्य को गृहयुद्ध में बदल रही है-
“कहीं कोई भाषा नहीं है
भूख के केन्द्र में
एक थरथराता हुआ आँसू है
जिस पर आग पहरा देती है.
बीबी! क्या बच्चे सो गये?
तुमने खाना खा लिया?” 10
जो पति-पत्नी अथाह प्रेम करते थे वो आज अजनबी बन गये हैं और जीवन को ढोग रहे
हैं-
“कहीं कुछ बदला नहीं है
लेकिन अब याद आता है
हम एक दूसरे को कितना प्यार करते थे.” 11
’न्यू गरीब हिन्दु होटल’, ’चानमारी से गुज़रते हुये’, ’हरित क्रान्ति’,
’मतदाता’, ’चुनाव’ आदि कविताएँ ऐसी हैं जिनमें सामाजिक स्थितियों को दिखाया गया
है. वे लोकतन्त्र के इस अमानवीय संकट के समय कविताओं के माध्यम से भारत को भ्रष्ट
होने से बचाना चाहते हैं-
“लोकतन्त्र के ज़रिये में भारतीय
वामपंथ के चरित्र को, भ्रष्ट होने से
बचा सकूँगा.” 12
यह विचार धूमिल की गर्वोक्क्ति नहीं, बल्कि उनकी कविता की एक शर्त है.
काव्य-सौन्दर्य
धूमिल की कविताओं में देहात और शहर, कविकर्म और राजनीति, सामाजिकता और
असामाजिकता, न्याय और अन्याय, अहिंसा और हिंसा, ईमानदारी और बे ईमानी, जिजीविषा और
निराशा आदि प्राय सभी मानव-जीवन के सभ्य और असभ्य अंगों का चित्रण किया गया है. वह
चित्रण ऐसी ठोस यथार्थता के धरातल पर हुआ है कि समूची समकालीन सामाजिक व्यवस्था का
मानो वह प्रतिबिम्ब हो. यह सभी अंग उनके काव्य में देखने को मिलते हैं.
काव्य-सौन्दर्य के लिये काव्य-कला, काव्य-शैली तथा काव्य-शिल्प जैसे अभिधान
प्रयुक्त किये जाते हैं. काव्य-सौन्दर्य के दो प्रमुख उपादान माने जाते हैं- अनुभूति
पक्ष (भाव पक्ष) (ब) अभिव्यक्ति पक्ष ( कला पक्ष).
अनुभूति पक्ष-
राजनीतिक यथार्थ का चित्रण:- स्वतन्त्रता प्राप्ति के उप्रान्त
राजनीति ने शहर और देहात के जीवन पर अपना दुष्प्रभाव छोड़ा है. राजनीति संसद से
होकर सड़क तक आ गई. संसद को सड़क पर लाने वाले वे पहले कवि थे. धूमिल अपने समय की
राजनीति से क्षुब्ध थे जिसे बुलन्द रखने के लिये अनेक देश भक्तों ने प्राण त्यागे,
जो हमारी स्वाधीन्ता का प्रतीक बने किन्तु वह आस्था भी डगमगा जाती है:-
“बीस साल बाद
मैं अपने आप से एक सवाल करता हूँ-
जानवर बनने के लिये कितने सब्र की
ज़रूरत होती है?
और बिना किसी उत्तर के चुपचाप
आगे बढ़ जाता हूँ.” 13 -बीस साल बाद
आज जन सामान्य स्थिति ऐसी हो गई है कि मनुष्य को अपनी
मूलभूत आवश्यकताओं के लिये मत-पत्र को बेच देना पड़ता है:-
“कहने का मतलब यह है कि भाईयों!
जनतन्त्र जनता से नहीं
धन की जंग से शुरू होता है
और फिर पहली बार यह जानवर
वह खुश होगा कि पतपेटी में
मत-पत्र के साथ वह अपनी समझ नहीं
डाल आया.” 14
’धूमिल’ की रच्नाओं में राजनैतिक शब्दावली का अधिक
प्रयोग हुआ है जैसे- जनतंत्र, संसद, मतदान, चुनाव, प्रजातंत्र, लोकतंत्र, मत-पत्र
इत्यादि. धूमिल की कविता में राजनैतिक चेत्ना पूरी तरह भारतीय परिवेश के अनुकूल
है.
धार्मिक रूढ़ियों का विरोध:- धर्म और परम्परा ने जहाँ भारतीय
जीवन को विशृंखल होने से बचाया है, वहीं इसमें व्याप्त अंधविश्वासों, पाखण्डों,
आडम्बरों और कुछ रूढ़ आचरणों को बढ़ावा देकर सामाजिक विकास को अबरुद्ध किया है.
साम्प्रदायिकता धर्म का कितना घिनौना रूप है जिस पर धूमिल ने अपनी कविताओं में
व्यापक स्तर पर प्रहार किया है:-
“ बाडियाँ फँसे हुये बाँसों पर
फहरा रहीं हैं
और इतिहास के पन्नों पर
धर्म के लिये मरे हुये लोगों के
नाम
बात सिर्फ़ इतनी है/ स्नान घाट
जाता हुया हर रास्ता/ देह की मंडी
से होकर गुज़रता है.” 15 – सच्ची बात
मानवीय सामाजिक संवेदना:- धूमिल ने अप्नए आस-पास घटित होने
वाले सभी पक्षों को अपनी कविता का आधार बनाया है. उन्होंने केवल सामाजिक संवेदनाओं
को ही नहीं वरन स्व्यं को भी कटघरे में खड़ा पाया है. कटघरा उसकी दॄष्टि में एक ऐसे
घेरे का प्रतीक है जिसमें खड़ा होकर हलफ़िया बयान देने वाले की सारी कोशिशें बेकार
हों या फिर सच्चे अभियोग लगाने वाला हो-
“ मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुये आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है.”16
धूमिल की कविता में संवेदना का एक उदाहरण उनके द्वारा
दिये गये औरत और माँ के प्रति विचारों में भी देखा जा सकता है-
“ तुम्हारा चेहरा/ जैसे कविता की
ज़मीन है
तुम एक सुंदर और सार्थक कविता हो
मेरे लिये.”17
व्यंग्यात्मकता:- धूमिल के सशक्त व्यंग्य की
सर्वोपरि विशेषता यह है कि उसमें गहन सच्चाई होती है. वह व्यंग्य करते समय किसी
प्रकार की सहानुभूति और करुणा का प्रदर्शन नहीं करते वरन तीखा प्रहार करते हैं.
फिर भले ही वह व्यभिचारी हो, नेता हो या तथा कथित साहित्यिक हो. ’मोचीराम’ कविता
का केन्द्र-बिन्दु व्यंग्य बोध है. जब वह कहता है-
“ न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता
है.”18
उनकी कविताओं में कुछ नर्म व्यंग्य, चाहो तो उसे
हास्य विनोद मान कर चलो, भी दिखाई देते हैं जैसे-
“सुनहरी किताब की जिल्द के ऊपर
पिता का डर है
और अदर
प्यारे का खत है” 19
इस प्रकार कई चुटीले व्यंग्य भी धूमिल की कविताओं में
मिल जाते हैं,
नारी के प्रति दृष्टिकोण:- धूमिल की कविता पर एक आरोप लगाया
जाता है कि इन्होंने स्त्री शरीरांगों अथवा मुद्राओं का इतना भाविक उपयोग किया है
कि जो काव्योचित नहीं है. किन्तु धूमिल ने हर जगह पर फ़रेब को लताड़ा है, फिर चाहे
वे नारी के शरीर की नज़ाकत और कोमल आकर्षक भाव-मुद्रायें ही क्यों न हों. एक उदाहरण
में इच्छाओं के लोक्तन्त्र में नंगी हुई औरत में औरत की विवशता ही है जो उसे चमड़े
का सिक्का चलाने वाले की अतिवादिता को मुखर करता है-
“ चमड़े के गाने दो प्यार
यौवन अराजक तत्वों से बनता है
भाषा की तंगी में लगभग
नंगी हुई औरत ने कहा-
इच्छाओं के लोकतंत्र में हम चमड़े
का सिक्का चलायेंगे.” 20 - सुदामा पांडे का प्रजातन्त्र
जहाँ पर रोटी और भूख स्त्री को मजबूर करती है वहाँ पर
समाज की वीकृतियॊं को भी स्पष्ट किया है. चीनी आक्रमण के बाद देश की स्थिति का
वर्णन भी मिलता है-
“लोग घरों के भीतर नंगे हो गये हैं
और बाहर मुर्दे पड़े हैं
विधवाएँ तमगा लूट रही हैं
सधवाएँ मंगल गा रही हैं.” 21 -संसद से सड़क तक
किन्तु दूसरी जगह उन्होंने औरत को मातृत्व रूप में भी
देखा है और पत्नी को भी सम्मान दिया है-
“........जिसमें तुम्हारे बचपन की
लोरियों की गंध है
और
जो तुम्हें बेहद पसंद है.” 22 -संसद से सड़क तक
“तुम्हारी आँखें कविता की गंभीर
किन्तु कोमल कल्पना है
तुम्हारा चेहरा
जैसे कविता की
ज़मीन है
तुम एक सुंदर और सार्थक
कविता हो मेरे लिये.” 23 –सुदामा....
यथार्थ बोध:- कवि धूमिल ने देश की वर्तमान
स्थिति का यथार्थ चित्रण भी किया है कि जहाँ पर देश दो वर्गों में विभाजित हो चुका
है और गरीब दो टुकड़े रोटी के लिये विवश है-
“ वहाँ बंजर मैदान
कंकालों की नुमाइश कर रहे थे
गोदान अनाज से भरे पड़े थे और लोग
भूखों मर रहे थे.” 24 – संसद.....
कवि की यह सच्चाई बोध किसी सुनी-सुनाई भूख पीड़ितों की
व्यथा नहीं है बल्कि मुक्तभोगी का यथार्थ है-
“ बच्चे भूखे हैं
माँ के चेहरे पत्थर
पिता जैसे काठ, अपनी ही आग में
जले हैं ज्यों सजा घर.” 25 – कल.....
प्रकृति चित्रण:- जीवन की भाग-दौड़ में हम सब कुछ
भूल गये हैं किन्तु धूमिल को अब भी याद है कि यह ज़मीन अपनी है, वो आसमाँ अपना है व
सूर्य हमारा सपना है, यह महान प्रिय देश हमारा भारतदेश है-
“ अब यह ज़मीन अपनी है
आसमान अपना है
जैसे पहले हुआ करता है
सूर्य, हमारा सपना है
मैं इंतज़ार करता रहा.”26
धूमिल को हिमालय से हिन्द महासागर तक फैले हुये नफ़रत
व साजिश से युक्त जली मिट्टी के ढेर पर गर्व है-
“यह मेर देश है......
यह मेर देश है.......
हिमालय से लेकर हिन्द महासागर तक
फैला हुआ.
जली हुई मिट्टी का ढेर है
जहाँ तक तीसरी ज़ुबान का मतलब
नफ़रत है.
साजिश है
अँधेरे हैं.
यह मेरा देश है.” 27
अभिव्यक्ति पक्ष-
धूमिल के काव्य में जितना अनुभूति का वैभव बिखरा पड़ा
है, उतना ही समृद्ध उनका अभिव्यक्ति पक्ष भी है. किसी भी कवि की अभिव्यंजना कौशल
का मूल्यांकन भाषा, छ्न्द, अलंकार, बिम्ब और प्रतीक के अध्ययन पर आधारित होता है.
भाषा:- ’धूमिल’ की भाषा में चमत्कार था,
खिलवाड़ नहीं है. बल्कि उसके लिये तो कविता बातों एवं भावों को स्पष्ट करने वाला
सशक्त माध्यम है जिन्में अनुभवों, सच्चाईयों. वार्तालापों, योजनाओं आदि को आधार
बनाया गया है. उन्होंने यथार्थ परिवेश को लेकर स्वाभाविक, सरल, बोलचाल की भाषा को
अपनाया है, जैसे- तत्सम-तद्भव शब्द, देशज-विदेशी शब्दावली में उर्दु, अंग्रेज़ी के
शब्द प्रधान हैं. तत्सम शब्दों का उदाहरण-
“ न कोई प्रजा है
न कोई तन्त्र है
यह आदमी के खिलाफ़
आदमी का खुला सा
षडयन्त्र है.” 28
उन्होंने उर्दू के डरपोक, शनाख्त, तमाम, चीज़ें,
खुफ़िया, बेशऊर, बातूनी शब्दों का और अंग्रेज़ी के traffic, warrant, telephone, voltage, rehearsal आदि शब्दों का प्रयोग किया है.
उपमान, प्रतीक और बिम्ब योजना:- नई कविता में कवि ने पुराने
प्रतीकों और बिम्बों को पूरी तरह से नकार दिया है, किन्तु अभिव्यक्ति के शिल्प को प्रभावी
बनाने में ये वे साधन हैं जो रचना के कथ्य को और स्थायी बनाते हैं.
उपमेय की जिस वस्तुस्थिति या गतिमान से उपमा दी जाती
है उसे काव्यशास्त्रीय शब्दावली में उपमान कहते हैं. साहित्य विकास के साथ ही उपमा
का स्वरूप और उपमान चयन का क्षेत्र भी बदलता जा रहा है. ’उपमान’ नाम सर्वाधिक
प्रचलित रहा है. इस शब्द के साथ ’योजना’ या ’विधान’ शब्द का प्रयोग कवि कौशल का
द्योतक रहा है. यद्यपि धूमिल ने उपमा- प्रतीक आदि के आधार पर कविता की स्वीकृति का
तिरस्कार किया है क्योंकि मात्र इनके होने से कविता की सही परख संभव नहीं है. तभी
तो कवि कहता है-
“आप मुस्कराते हो?
बढ़िया उपमा है/ अच्छा प्रतीक है
हें हें हें/ हें हें हें/ तीक
है-तीक है
और मैं समझता हूँ कि आपके मुँह में
जितनी तारीफ़ है/ उससे अधिक पीक
है.” 29
धूमिल ने अपने काव्य-संग्रहों में जिन प्रतीकों का
प्रयोग किया है वे हैं- ओस बिन्दु, मौसम, चेहरा, आदमी, चालाक आदमी, औरत, मैदान,
मकान, सड़क, कमरा, रोटी, लालटेन, कील, हिमालय, आँधी, रात, रोश्नी, संसद,
हिन्दुस्तान आदि.
उन्होंने चित्रात्मक बिम्ब भी प्रस्तुत किये हैं,
जिनसे कवि धूमिल की बिम्ब-योजना संबंधी क्षमता को सही रूप में जाना जा सकता है. इन
बिम्बों में परिवेश परिस्थिति के भरपूर समाहित होने के कारण जो सघनता है, उसमें
अर्थ संभावनाएँ सम्यक रूप में निहित हैं.
“इतनी हरियाली के बावजून
अर्जुन को नहीं मालूम उसके गालों
की हड्डी क्यों
उभर आयी है. उसके बाल
सफेद क्यों हो गये हैं.
लोहे की छोटी सी दुकान में बैठा
हुआ आदमी
सोना और इतने बढ़े खेत में बैठा हुआ
आदमी
मिट्टी क्यों हो गया है.” 30
नाटकीय तत्व:- धूमिल की कविताओं में कथात्व और
नाटकीय भंगिमा के भी दर्शन होते हैं. मोचीराम, नक्सलबाड़ी, गुफ़्त्गू इतियादि ऐसी ही
इनकी कविताएँ हैं. इन कविताओं में कथा न होकर कथात्व है. नाटकीय तत्व कविता में
जीवन्त्तता एवं संभावना को भरता है.
“बाबू जी! सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई बड़ा है. न कोई छोटा है
मेरे लिये हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने. मरम्म्त के लिये
खड़ा है.” 31
छ्न्द विधान:- आधुनिक युग के कवियों ने
छ्न्दोबद्ध कविताएँ लिखी हैं. छ्न्द से हमारा मतलब उस रचना से है जिसमें मात्रा,
वर्ण, यति-गति आदि के नियम हों और अन्त में तुक विधान हो. किन्तु जब कालान्तर में
निराला ने छ्न्द मुक्त कविताएँ लिखीं तो छ्न्द का भ्रम टूट गया. इस प्रकार छ्न्द
मुक्त की परम्परा इस हिन्दी साहित्य में प्रस्फुटित हुई.
धूमिल भी इसी परम्परा के सातवें दशक के सबसे अधिक
महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं. उनकी प्रारम्भिक रचनाएँ छ्न्द मुक्त हैं. उनके मुक्त
छ्न्द में एक गत्यातमक्ता है, प्रवाहकता है. लयदर्श को ध्यान में रखा गया है. उनकी
मुक्त छ्न्द कविता में भी तुक है. यह तुक मोह चाहे संस्कारित प्रभाव है य अपनी
कविता को नया जाने पहचाने का विचार था फिर अलग पहचान बनाने की कोशिश अथवा परम्परा
तोड़ने का प्रयास.
“लोच है
नर्मी है
मगर मत भूलो कि सबसे बड़ी चीज़
वह बेशर्मी है.” 32
लोकोक्तियाँ एवं मुहावरे:- धूमिल की कविता में लोकोक्तियों
और मुहावरों की झलक भी मिलती है.
अशोक बाजपेयी का कथन है कि- “धूमिल जो काव्य-संसार
बसाते हैं वह हाशिए की दुकान नहीं, बीच की दुनिया है. यह दुनिया जीवित है और
पहचाने जा सकने वाले समकालीन मानव चरित्रों की दुनिया है जो अपने ठोस रूप रंगों और
अपने चारित्रिक मुहावरों में धूमिल के यहाँ उजागर होती है.”
धूमिल की कविता में दो तरह के मुहावरे मिलते हैं. एक
वह जो साहित्य में प्रचलित हैं और आम बोल-चाल की भाषा में समाज में सुने जा सकते
हैं, दूसरा वह जिन्हें धूमिल ने स्व्यं गढ़ा है. जैसे धर्मशाला होना, हरी आँख,
चेहरा टटोलना, आँख पर पट्टी बाँधना, भेड़िये का भाई, जाति पर थूकना, मिट्टी की तर,
सन्नाटा सूँघना आदि.
“ यह तुम्हारा मुहावरा है
बारिस में भीगकर चमड़े को खतरा है.”
33
धूमिल ने निश्चित रूप से न केवल दलित व निम्न वर्ग के
लोगों पर लिखा बल्कि डट कर ऐसे लोगों पर व्यंग्य भी किया जो शोषितों के ऊपर शोषण
कर रहे थे. वे सही अर्थों में एक अल्प शिक्षित गांव में पूरी तरह धँसे हुये, किसान
जीवन की कठोरताओं, व्यंग्यों और मुहावरों को अपनी ग्रामीण सम्पदा में जीने वाले
सशक्त किसान कवि थे.